मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

यूनिक आईडी के बाद अब यूनिक नंबर डायल xxx


भारत में सुरक्षा व्यवस्था मजबूत करने के लिए गृह मंत्रालय द्वारा 24 घंटे फ्री हेल्पलाईन लाने की योजना है। इस योजना के आने के बाद आम नागरिक कहीं से भी कोई भी खुफिया सूचना दे सकता है, साथ ही उस व्यक्ति की पहचान भी गुप्त रखी जाएगी। इससे पहले सुरक्षा की नजर से देश के प्रत्येक नागरिक को यूनिक आईडी देने की योजना है। इस यूनिक आईडी का जिम्मा नंदन नीलकेनी पर है। यह आईडी वोटर आईडी कार्ड से भी ज्यादा यूनिक होगी।
इससे पहले भी पुलिस द्वारा गुप्त सूचना प्राप्त करने के लिए टोल फ्री नंबर 100 उपलब्ध है। यह नंबर ज्यादा कारगर साबित नहीं हो रहा है। इसकी वजह नंबर व्यस्ता या उपरी दबाव के कारण उस पर कार्रवाई नहीं होना है। ऐसे में गृह मंत्रालय विदेशों में चलने वाले नंबर 911 की तर्ज पर एक नया नंबर आम नागरिक को मुहैया कराने वाली है।
कैसे काम करता है नंबर 100
किसी भी फोन से 100 डायल करने पर उस स्थान के नजदीकी पुलिस कंट्रोल रूम (पीसीआर) पर कॉल पहुंचता है। पीसीआर का एक पुलिस का जवान (कॉल आपरेटर) सूचना लेता है और संबंधित अधिकारी तक वह सूचना पहुंचाता है। उस सूचना के आधार पर कार्रवाई की जाती है। डायल 100 छोटे शहरों की आपेक्षा बड़े शहरों में ज्यादा प्रभावशाली है। डायल 100 पर आने वाली सूचनाओं पर कार्रवाई की जाती है लेकिन कुछ वक्त के बाद।
नए नंबर के आ जाने के बाद इसका सीधा संपर्क खुफिया विभाग से होगा। इस नंबर पर आने वाली प्रत्येक कॉल पर उसकी नजर होगी। हर छोटी से छोटी जानकारी को गंभीरता से लिया जाएगा। इस योजना को जिला स्तर तक लाने की बात चल रही है। इससे देश के प्रत्येक जिला का हर एक व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी निभाने का अवसर प्राप्त होगा।
फोटो - गूगल

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

दिल्ली पुलिस की वर्दी फिर हुई दागदार


दिल्ली पुलिस कि जितनी भी ईमानदारी के कसीदे पढ़े जाए सभी रिश्वतखोरी के सामने कम पड़ जाते हैं। दिल्ली पुलिस की वर्दी पर फिर से एक बार रिश्वतखोरी का दाग लग गया है। मामला दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे (आईजीआई) का है। हवाई अड्डे पर पुलिसकर्मी 24 लाख रूपए रिश्वत लेकर 100 टैक्सी को अवैध रूप से चलने का परमिट देते थे। इस धंधे में लगभग 20 दलाल लिप्त हैं जो पुलिस को प्रतिदिन 4 हजार रूपए रिश्वत देते थे। रिश्वत की कुल रकम जोड़ें तो 20 दलाल के प्रतिदिन 4 हजार के हिसाब से 80 हजार रूपए होते हैं। इस तरह पुलिस प्रतिमाह टैक्सी दलालों से 24 लाख रूपए वसूल करती थी। यह रकम भ्रष्ट पुलिस आपस में बांट लेते और पुलिस की वर्दी को बदनाम करने से ना चूकते। पिछले कई महीनों से जारी इस धंधे से पुलिस तो करोड़पति बन गए लेकिन जेब कटी उन टैक्सी ड्राईवरों की जो अपना पेट पालने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं।
आईजीआई पर रिश्वतखोरी रोकने के लिए पुलिस ने नए हथकंडे अपना लिए हैं जिसके तहत अवैध रूप से टैक्सी चलाने वालों पर लगने वाला जुर्माना बढ़ा कर 10 हजार रूपए कर दिया है। जुर्माना बढ़ाने का कारण यह है कि पहले मामूली जुर्माना लगाया जाता था, इसे टैक्सी वाले आराम से देते थे कारण यह जुर्माना उसके दिन भर की आमदनी के मुकाबले बहुत कम थी। दूसरा हवाई अड्डे पर बायोमीट्रिक पहचान प्रणाली लगाई जा रही है जिससे सिर्फ पहचान पत्र वाले को ही काम करने की अनुमति मिलेगी। हवाई अड्डे पर फिलहाल लगभग 1800 अधिकृत टैक्सी ड्राईवर काम कर रहे हैं।
दिल्ली पुलिस की जितने भी ईमानदारी के पुल बांधे जांए लेकिन वो ईमानदारी अंत में आकर ईनामदारी में बदल ही जाती है। पहले ऐसे कई मामले आएं हैं जिसमें दिल्ली पुलिस के जवान ने अपनी ईमानदारी का परिचय दिया है। लेकिन उनकी कामयाबी एक पल में चकनाचूर हो जाता है जब कोई पुलिसवाला रिश्वत लेते पकड़ा जाता है।
फोटो - गूगल

ब्लॉग आगंतुकों को मेरा नमस्कार

पहले तो माफी चाहता हूं कुछ महीनों से ब्लॉग पर अनुपस्थित रहने के लिए और कोशिश करूंगा कि ब्लॉग पर लगातार लिखता रहूं। अगर आपने बेरोजगारी का बोझ ढोया है तो आपको मुझसे कोई शिकायत नहीं रहेगी।
धन्यवाद
कौशल विश्वकर्मा

रविवार, 22 नवंबर 2009

फुटपाथ पर अखबार बिछाके

सो जाते हैं फुटपाथ पर अखबार बिछाके मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते
आज तक कई बार मुनव्वर राणा के इस शेर को सुना....और लोगों को सुनाया...लेकिन इस शेर में असल मर्म क्या छिपा है....उसे मैंने जाना 16 नवंबर की तारीख को....दरअसल हुआ कुछ यूं कि...उस दिन बारिश की वजह से मैं अपने घर नहीं जा पाया...औऱ मुझे अपने एक मित्र के यहां रात गुजारने के लिए जाना पड़ा....और वो पूरी रात हम दोनों ने बाटला हाउस की एक चाय की दुकान पर काटी...और वहीं मैंने इस शेर में छिपे असल मर्म को जाना....चाय की दुकान के पास ही एक टिन शेड के नीचे कुछ लोग सोए हुए थे...रुक-रुक कर बारिश हो रही थी...चाय वाले की दुकान लोगों का आना-जना लगा हुआ था...लेकिन इतने शोर-शराबे के बावजूद...ये लोग अपने दर्द के बिस्तर पर चैन की नींद ले रहे थे...तभी अचानक बारिश तेज होने लगी....औऱ धीरे-धीरे बारिश की फुहाल टिन शेड के नीचे सोए लोगों के पास तक पहुंचने लगी....टिन के नीचे सोए लोग बारिश में भीगने लगे...इसके बावजूद वो लोग इस कदर चैन की नींद में डूबे थे...जैसे उनके नीचे मखमली बिस्तर लगा हो...और वो उस पर बड़े चैन के साथ सोए हों....तभी अचानक मेरे जुबान पर करकस राणा का ये शेर आ गया....
सो जाते हैं फुटपाथ पर अखबार बिछाके

मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते

शनिवार, 7 नवंबर 2009

...पर ये जूनून कम नहीं होगा

आईआईएमसी में दाखिला लेने से पहले मैं प्रभाष जोशी जी के बारे में कुछ नहीं जानता था। यहाँ तक कि मुझे यह भी नहीं पता था कि प्रभाष जोशी नाम का कोई व्यक्ति एक वरिष्ठ पत्रकार है। आईआईएमसी में आने के बाद मैंने उनके बारे में सुना और उनसे मिलना चाहा। मेरी यह ख्वाहिश जल्दी ही पूरी हुई, जब वे हमारे संस्थान में एक सेमिनार में आए। उस वक्त मैंने पहली बार उन्हें देखा था। लाख कोशिशों के बाद भी उनसे मुलाकात नहीं हो पाई। उस सेमीनार में उन्होंने जिस अंदाज़ में अपनी बात कही थी, वो बातें आज भी मेरे कानों में गूंजती रहती है। उनके बोलने का तरीका, शब्दों का चयन और वो आक्रामक तेवर। वास्तव में मुझे पत्रकारिता में आगे बढ़ने के लिए उनकी बातों ने प्रेरित किया।

छह नवम्बर कि सुबह मैं सो रहा था। मेरे मोबाइल पर मैसेज आया कि प्रभाष जोशी इस दुनिया में नहीं रहे। मैं हैरान रहा गया। समझ में नहीं रहा था कि मैं क्या करूं। पिछली रात भारत और ऑस्ट्रलिया के बीच हुए मैच को देखते हुए दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई। मैच में सचिन ने १७५ रन बनाये, लेकिन भारत ये मैच हार गया। मैं उनकी मौत के बारे कहूँगा कि क्रिकेट के दीवाने को क्रिकेट ने ही मार दिया। सुबह जब मैं ऑफिस पहुँचा तो सबसे पहले ख़बरों की वेबसाइट्स पर उनकी मौत के बारे में पढ़ा। बहुत दुःख हुआ।

इसमे कोई दो राय नहीं कि वो क्रिकेट और सचिन तेंदुलकर के बहुत बड़े प्रसंशक थे। जब भी मैं क्रिकेट बारे में उनके लिखे हुए किसी भी कॉलम को पढ़ता था, तो ऐसा लगता था कि मानो मैंने वो मैच देखा हो। उनकी लेखनी से मुझे इस प्रकार लगाव हो गया था कि मैं 'जनसत्ता' अख़बार केवल उनसे लिखे हुए कॉलम को पढ़ने के लिए ही खरीदता था। उनसे दोबारा मिलने के लिए मैं बैचेन था। मेरी ये बेकरारी जल्दी ही ख़त्म हुई। दूरदर्शन के एक प्रोग्राम के लिए मुझे जाना था। वहां जाकर जब मुझे पता चला कि इस कार्यक्रम में प्रभाष जोशी भी रहे हैं तो मेरी खुशी का ठिकाना रहा। इस कार्यक्रम में कई बड़े पत्रकार शामिल थे। करीब एक घंटे बाद जब कार्यक्रम ख़त्म हुआ तो मुझे उनसे मिलने को अवसर मिला। स्टूडियो के बाहर मेरी उनसे मुलाकात हुई। मुलाकात के वो पल मेरे लिए यादगार बन गए। उस समय मेरी उनसे काफ़ी बातें हुईं और पत्रकारिता के बारे में भी उन्होंने मुझे काफी बताया। उन्होंने तब एक बात कही थी, 'पत्रकारिता करने के लिए एक जूनून कि ज़रूरत होती है। तुम अभी पत्रकारिता कि दहलीज़ पर हो। यदि इसमें सफल होना चाहते हो तो अपने जूनून को कम मत होने देना।'

आज प्रभाष जोशी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन एक पत्रकार के लिए उन्होंने जिस जूनून की बात कही थी, वो जूनून अब मेरे अन्दर और तेजी से बढ़ेगा। हिन्दी के इस महान पत्रकार को मैं श्रद्धांजलि देता हूँ।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

गर होता.. गुस्सा खत्म करने की दवा


आज एड्स जैसी लाईलाज बीमारी की भी दवा बन चुकी है। इसी तरह अगर गुस्सा खत्म करने की दवाई होती तो आज परिदृश्य कुछ इस तरह होता। मुतंजर अल जैदी बुश पर जूता फेंकने की बजाए प्यार से पूछता इराकियों के लिए आपका अगला कदम क्या होगा। जरनैल सिंह भी पी चिदंबरम पर जूता उछालने के बजाए बड़े प्यार से मुस्कुरा कर पूछता सर 84 के दंगो की जॉच कब तक पूरी हो जाएगी। सचमुच ऐसी जादुई दवा का इजाद हो जाए तो पड़ोसी आपस में नहीं लड़ते। दिल्ली पुलिस के एफआईआर में पचास फीसदी कमी रोडरेज मामले से हो जाती। 
कल्पना कीजिए किसी गांव का परिदृश्य जहां दो महिलाएं छोटी सी बात पर आपस में लड़ रहीं हैं। पहली महिला दूसरे से कहतीं हैं कि तोहरे पप्पूआ तो हमर खेत के सारे केतारी उखड़ देलके है। तो दूसरी महिला उसके जवाब में कहती कि तू तो हमर पप्पुआ के पीछे पड़ गईली हैं उ बेचारा के बदन में इतना जान कहां कि तोहर खेत के केतारी उखाड़तई। ये दो महिलाओं के बीच गुस्से का एक दृश्य है। और मैं आपको बता दूं जहां तक मेरा अनुभव है कि गांव की महिलाएं जब झगड़तीं हैं तो दोनों की बातें पूरा गांव सुनता है। उनका वोकल कोड इतना मजबूत होता है कि गांव में कम्युनिटी रोडियो के लिए किसी तकनीक की जरुरत नहीं बस किसी उंचे जगह में उनको खड़ा करने की जरुरत है। अब गुस्सा खत्म करने की दवाई ठीक झगड़े से पहले दोनों महिलाओं को खिला दिया जाए तो पूरा झगड़ा कुछ इस तरह होगा।
पहली महिला दूसरी महिला से कुछ इस अंदाज में कहतीं कि सुना हीं पप्पुआ के मां तोहरे पप्पुआ हमर खेत के केतारी चुरा लेलके है ओकरा तनी बोल देहीं चोरी ना करे जब खाए के मन करे तो हमरा से कह दे हम ओकरा दे देबई। महिला इतने प्यार से कहती कि दूसरी महिला का जबाव कुछ इस तरह होता – हां सच्चे में तू देखा हम ओकर का गत करबई ओकरा आवे तो दे।
गांव के परिदृश्य के बाद अगर लोकसभा और विधानसभा की कल्पना करें तो तो वहां सीन कुछ ऐसा होगा। जम्मू विधानसभा में सत्र के दौरान महबूबा मुफ्ती विधानसभा अध्यक्ष का माईक नहीं उखाड़ती वो बहुत ही प्यार से शोपियां मामले पर कहतीं। उनका मजमून कुछ इस तरह होता – अध्यक्ष महोदय शोपियां कांड हुए कई साल बीत गए। जॉच चलती रही कारवाई के नाम पर आश्वासन ही मिला। अध्यक्ष महोदय इस मामले पर आप उचित पहल करें। 
आज किसी को भी पेसेंस नहीं है हर कोई जल्दबाजी में रहता है। यह एक वजह हो सकती है गुस्सा भड़कने का। वैसे फिल्म मुन्ना भाई एमबीबीएस में डॉक्टर अपने गुस्से को काबू में रखने के लिए हंसता था। कुछ इस तरह के नुस्खे अपनाए जाए तो बात बन गई समझो।

एक सफर


यात्री अपने सामानों की सुरक्षा स्वंय करें और यात्री अपनी सुरक्षा भी स्वंय करें.... पहला मजमून आपको देश के लगभग सभी रेलवे स्टेशनों में देखने मिल जाएगा। दूसरा मजमून शायद आपको ट्रेन में चढ़ने के बाद मालूम हो जाएगा। रेलवे अपने यात्रियों की सुरक्षा के जितने भी दावे कर ले लेकिन हकीकत यही है कि यात्रियों को अपनी सुरक्षा स्वंय ही करनी होगी।
रेलवे द्वारा ट्रेनों में यात्रियों की सुरक्षा के लिए रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स तैनात करती है। आरपीएफ के जवान ट्रेन के सभी डिब्बे में गश्त लगाकर यात्रियों का सुरक्षा सुनिश्चित करतें हैं। झारखण्ड के टाटानगर से उड़ीसा के राउरकेला के बीच कुछ जवानों की ड्यूटी लगाई जाती है। यह स्टेशन हावड़ा मुंबई रेलमार्ग में आती है। इन दोनों स्टेशन के बीच में चक्रधरपुर स्टेशन है जो रेलवे का डिवीजन है। 3 सितंबर की रात का वाक्या है। हरिद्वार पुरी कलिंग उत्कल एक्सप्रेस सही समय शाम 6:45 बजे चक्रधरपुर पहुंची। उस ट्रेन में आरपीएफ के छह जवान अपनी ड्यूटी लगाने पहुंचे। वे सभी एक स्लीपर कोच में खाली जगह देखकर बैठ गए। जवानों को अपनी ड्यूटी बजानी थी। जवान तीन – तीन कर आमने सामने बैठ गए। यहां से आरपीएफ के जवानों की ड्यूटी शुरू होती है। एक जवान अपने और अपने साथी जवान के राइफल को दोनों सीट पर रखता है। उसके बाद दोनों राइफल के उपर पुलिस की विशेष पहचान गमछा (अधिकतर पुलिस अपने गले में गमछा रखते हैं) रख देता है। जिससे एक प्लेटफार्म तैयार हो जाए। अब सभी जवान अपनी भूमिका में आते हैं। बोली लगनी शुरू होती है। एक जवान 16 से बोली शुरू करता है। यह बोली 22 में जाकर खत्म होती है। आपको शायद यह जानकर आश्चर्य नहीं होगा यह बोली ताश के संबंधित एक खेल का था। आपरपीएफ के सभी जवान अपने ड्यूटी का कीमती समय जुआ खेलने में लगा रहे थे। 

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

इंसानियत की मौत

इंसानियत की मौत
आज इंसानियत को अपने सामने मरते देखा....किसी की मौत हुई....तो किसी ने जश्न मनाया....इन जश्न मनाने वालों में मैं भी शामिल था....आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई.एस. राजशेखऱ रेड्डी आज हमारे बीच नहीं रहे....2 सितंबर की शाम को जब उनके हेलीकॉप्टर के लापता होने की खबर आई....तो सब चैनल बाकी सब खबरें छोड़कर राजशेखर के हेलीकॉप्टर को ढूंढने के लिए निकल गए....हमारा चैनल भी कुछ देर बाद बाकी चैनलों के साथ इस रेस में शामिल हो गया....उस वक्त तम हम रोजाना की तरह अपने बुलेटिन की तैयारी में जुटे हुए थे....लेकिन धीरे-धीरे राजशेखर का मामला गहराता जा रहा था....चैनल की स्क्रीन पर सिर्फ और सिर्फ राजशेखर थे....हमने जो तैयारी की थी....वो सारी की सारी धरी रह गई....और राजशेखर ने हम सब को निठल्ला कर दिया....इस बीच कुछ लोग बातें करने लगे....कि अगर इनका हेलीकॉप्टर अगर नहीं मिलता....या फिर क्रैश हो जाता है....और उसमें राजशेखर मारे जाते हैं....अगर क्रैश में नहीं मरते....तो नक्सल बहुल इलाका है....नक्सली उन्हें जिंदा नहीं छोड़ेंगे....चैनल के न्यूज रुम में कुछ इसी तरह का चक्कलस था....ये सब चक्कलस करने वालों में मैं भी शामिल था....कुछ देर तक बहुत अच्छा लग रहा था....मैं भी सोच रहा था कि अगर राजशेखर वापस ही नहीं आते....तो मजा आ जायेगा....कुछ काम ही नहीं करना पड़ेगा....पूरे दिन राजशेखर पर ही खेलेंगे....राजशेखर ने मेरी चिंता तो खत्म कर दी....जब तक मेरी शिफ्ट पूरी हुई....उनके बारे में कोई खबर नहीं थी....चैनल अभी भी इसे ही चलाने में लगे हुए थे....खैर हम अपने घर पहुंच गए....घर जाने के बाद एक मीडिया क्लर्क एक आम इंसान में तब्दील हो चुका था....और राजशेखर की सही-सलामत वापसी की दुआ कर रहा था....बैड पर जाने के बाद भी कुछ देर तक आंखों में राजशेखर ही थे....आंखों के आगे अंधेरा आ रहा था....कब आंख लगी....पता ही नही चला.....सुबह जब बुद्धु बक्से को खोला....तो राजशेखर अब भी कहीं खोए हुए थे....उनकी कोई खबर नही थी....ग्यारह बजते-बजते मैं रोजाना की तरह ऑफिस जाने की तैयारी में लग गया....मन में था कि राजशेखर का अगर निधन हो जाए....तो आज भी खूब तफरी काटने को मिलेगी....और खबरों को बनाने की कोई जरुरत ही नहीं पड़ेगी.....तभी मेरे पिताजी ने कहा कि मर गया बेचारा....मैं भागते हुए टीवी के सामने गया.....और जो मैंने देखा....उसे देखकर मेरी आंखें भर आईं....मैं मुंह से अचानक निकल पड़ा....अच्छा आदमी था बेचारा....मरना नही चाहिए था....लेकिन अंदर ही अंदर मेरा मन अपने आप को कचोट रहा था....मैं सोच रहा था कि मीडिया की चार दिन की चकाचौंध में ही मेरी इंसानियत ने दम तोड़ दिया है....किसी के घर का चिराग बुझ गया है....किसी के सिर से पिता का साया उठ गया है....और मैं इसका जश्न मना रहा हूं.....मुझे अपने पर ही घिन्न आ रही थी....बहरहाल मेरा ये दर्द को मेरे इस लेख के जरिए जाहिर हुआ....आज राजशेखर रेड्डी हमारे बीच नहीं हैं....मैं भगवान से प्रार्थना करता हूं कि....उनकी आत्मा को शांति दे............
अमित कुमार यादव

सोमवार, 22 जून 2009



सफर... कुछ खट्टे-मीठे अनुभव
आज बहुत दिनों के बाद बाइक को आराम देकर ऑटो रिक्शा का सफर किया... दुपहिया को छोड़कर तिपहिया का सफर काफी थकान भरा था... लेकिन इस सफर में वर्तमान में चल रहे हालातों से बारीकी से रुबरु होने का मौका मिला... आज की सुबह शायद अपनी जिंदगी में दसवी या ग्यारहवी बार सुबह पांच बजे उठा... जल्दी जल्दी में दिनचर्या की शुरुआत कर ऑफिस पहुंचने के चक्कर में ऑटो के लिए सड़क पर जा खड़ा हुआ... ऑटो आया... खचाखच भरा हुआ था... पेड़ के एक सिरे से लटकते फल की तरह मैं भी ड्राइवर की सीट पर लटक गया... फिर कुछ ऐसी बातें सुनने को मिलीं... जिनसे मैं अंजान तो नहीं था... लेकिन उन्हें लेकर इतना गंभीर भी नहीं था... जैसे विश्वयापी मंदी... हालांकि मंदी से मैं भी अछूता नहीं हूं... मैं भी इन दिनों मंदी के भंवर में फंसा हुआ हूं... लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं... जिन्हें इस मंदी ने कहीं का भी नही छोड़ा है... अब तक मैं यह सिर्फ अखबारों और टीवी पर पढ़ और देख रहा था... लेकिन कल ऑटो में दो लोगों की बातचीत सुनकर मुझे अहसास हुआ कि... मंदी का दौर कितना भयानक है... पिछली सीट पर बैठे एक शख्स की बातों पर जब मैंने गौर किया तो... पता चला कि मंदी से पहले वो छ लोगों की रोजी-रोटी का सहारा था... उसका अपना ठेकेदारी का काम था... और उसने छ लोगों को नौकरी पर रखा हुआ था... लेकिन आज हालात ये है कि छ लोगों को नौकरी देना तो दूर... वो खुद के लिए कोई काम नही जुटा पा रहा है... दूसरा शख्स एक प्राइवेट फैक्ट्री में काम करता था... उसकी हालत तो काफी खराब थी... घर में छ लोगों के ऊपर वो एक कमाने वाला था... और उसे भी पिछले तीन-चार महीनों से सैलरी नही मिली थी...खैर मेरे उतरने का समय नजदीक आ पहुंचा था...मैंने ऑटो से उतर गया... और आगे के सफर के लिए मैं डीटीसी की बस में सवार हुआ... लेकिन मेरा दिमाग अब भी उन लोगों के बारे में सोच रहा था... कि मैं तो अकेला हूं... घर में हम पांच लोग हैं... लेकिन भगवान की कृपा से जिंदगी मजे से गुजर रही है... मंदी की खबरें पढ़कर डर तो लगता है... लेकिन सिर्फ नौकरी न मिलने के सिवाय मेरे पर इसका ज्यादा असर नहीं पड़ा... हालांकि मंदी में भी मेरे पास मौके आए... लेकिन बदकिस्मती से मैं उन्हें भुना नहीं सका... बहरहाल मैं बस में बैठा उन लोगों के बारे में ही सोच रहा था... तभी एक हमउम्र शख्स ने मेरे हाथ में एक पर्चा थमाते हुए... मुझसे उस पर लिखे हुए पते के बारे में बताने को कहा... उस पर्चे पर लिखा था... कि हम लोग युवाओं को फिल्मों में मौका दिलाते हैं... और अब तक हमारे यहां से निकलकर कई लोग फिल्मों की इस रंगीन दुनिया का हिस्सा बन चुके हैं... सूर्या प्रॉडक्शन हाउस... पता लक्ष्मी नगर.... मैंने ये सब पढा... और मन ही मन मुझे एक खीझ भरी हंसी आई... मेरा जो अनुभव रहा है... उसके आधार पर मैंने उसे इसके पचड़े में न पड़ने की सलाह दी... तो उसने बताया कि... मैं नौकरी की तलाश में... और फिल्मों में अपनी करियर बनाने के लिए मध्य प्रदेश से दिल्ली में आया हूं... मेरे पिताजी एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे... जो मंदी की भेंट चढ़ गयी... मैं घर में सबसे बड़ा हूं... अब सब मेरे कंधों पर आ टिका है... उसकी बातें सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ...और मैंने सोचा कि नौकरी की तलाश में कितने ही युवा इस तरह ठगी का शिकार बन जाते हैं... क्योंकि इस तरह के संस्थान सिवाय युवाओं को बेवकूफ बनाने के और कुछ नहीं करते... अब तक मैं मंदी के भंवर में ही फंसा हुआ था... मेरी मंजिल करीब आ चुकी थी... और कुछ देर बाद मैं एक कांच की बिल्डिंग में दाखिल हुआ... जो कि मेरा ऑफिस है... मंदी फुर्र हो चुकी थी... अब सब कुछ रोजाना की तरह था... अचानक बुद्धु बक्से पर नजर गयी... और जो मैंने देखा... उसे देखकर मैं हैरान रह गया... आज पूरे सफर के दौरान मंदी से ही पाला पड़ा था... औऱ जो खबर मैंने देखी... वो मंदी के इस दौर में एक हैरान करने वाली घटना थी... सिटी ग्रुप के एशिया-प्रशांत के सीईओ को नब्बे करोड़ रुपए का सैलरी पैकेज मिला है... इस मंदी के दौर में इतनी बड़ी कमाई वाकई हैरान कर देने वाली थी... दूसरे मुंबई में एक सात सितारा होटल खोला गया... ये सब उस मंदी का दौर है... जिसमें कर्मचारियों की सैलरी कट रही है... छंटनी हो रही है... कंपनियां बंद हो रही है... और इधर तो सब कुछ उल्टा ही नजर आता है... दोपहर के दो बज चुके थे... और मेरे घर जाने का वक्त हो चुका था... मेरे जेहन में कुछ सवाल हिलोरें ले रहे थे... और मैं अब तक उनके जवाब ढूंढने की कोशिश में लगा हुआ है... थोडे सोचने-विचारने के बाद मुझे ये लगा कि... चाहे सूखा पड़े... या बारिश हो... या फिर मंदी का भयावह दौर हो...कुल मिलाकर इन सब की मार आम आदमी पर ही पड़ती है... और लोग तो सिर्फ इसकी तपिश महसूस करते हैं...

अमित कुमार यादव

सोमवार, 1 जून 2009

यादों के झरोखे से


यादों के झरोखे से
गौर से देखिये इस फोटो को यह फोटो मेरे एक बहुत ही खास मित्र की है, जो अब नहीं है। अरे नहीं है का मतलब मेरी मित्रता नहीं टूटी है, अब वो दिल्ली में नहीं है। वह इलाहाबाद चला गया है। दिल वालों की दिल्ली भी मेरे मित्र को रोक नहीं सकी। वक्त का तकाजा है जो आज हमसे वह जुदा है। वरना इन फिजाओं में इतना दम कहां।
मिश्राजी मेरे बहुत करीबी मित्र थे। उनकी हर बात अरे यार से शुरु होकर क्या कहा पर खत्म होती थी। मिश्राजी और मेरी मित्रता इतनी गाढ़ी थी कि वह अपने रुम के बजाये मेरे रुम में आकर गपियाते थे। हां यह बात दीगर है कि रुम में वह मुझसे नहीं, फोन पर किसी दुसरे मित्र से देर रात तक बतियाते थे। मिश्राजी मुझसे कभी किसी बात पर नाराज नहीं होते थे। चाहे उनका जरुरी काम समय पर करके ना दूं।
मिश्राजी की एक जुमले की मैं हमेशा तारीफ करुंगा। उनके जुबान पर यह जुमला हमेशा रहता था - अरे छोड़ो यार । हमेशा मुस्कुराना उनकी फितरत में शुमार था। एक बार इसी बात पर लंबी बहस हो गयी। हमारी जमात गंगा ढाबा में जमी और एक मुद्दे पर बहस शुरु हो गई। मिश्राजी ने अपना जुमला ठोक दिया - अरे छोड़ो यार। बस क्या था कुछ मित्रों की भवें तन गयी। बात बहुत छोटी थी, मुद्दा था कि हमारे मित्र का जन्मोत्सव कैसे मनायी जाये। बात बढ़ते देख मिश्राजी ने भांप लिया की मेरे जुमले से मित्रगण नाराज हो गये हैं, तो उन्होंने फिर वही जुमला दे मारा - अरे छोड़ो यार, हो जायेगा इंतजाम। मिश्राजी हर मौके को भांप लेते थे और स्थिति बिगड़ने से पहले ही संभाल लेते थे।
मिश्राजी नौकरशाह बनना चाहते थे। नौकरशाह बनना आसान नहीं, इसके लिये कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं यह उनको अच्छी तरह से पता है, जो इसका सपना संजोये रखते हैं। वजह यही थी कि मिश्राजी नौकरशाही की तैयारी के लिये फौरन दिल्ली से इलाहाबाद के लिये रवाना हो गये। कुछ छोड़ कर आये थे और बहुत कुछ लेकर गये के तर्ज पर वापस मिश्राजी निकल लिये, और अपने मित्रों के बीच कुछ यादगार पल छोड़ गये। कहते हैं अकबर के दरबार में नौ रत्न हुआ करते थे और यह कहना उचित होगा कि हमारी जमातियां में मणेन्द्र मिश्रा भी एक रत्न थे।

शनिवार, 30 मई 2009

२५ मई से बदल रहा है


25 मई से बदल रहा है....25 मई से छोटे पर्दे के कार्यक्रमों में जो बदलाव आया....उसे देखकर लगता है कि महिलाओं को सिर्फ एक कमोडिटी की भांति प्रयोग करता आ रहा टेलिविजन अब कुछ बदल रहा है....और आज की आधुनिक संघर्षरत महिला की छवि को देश के सामने पेश करने की कोशिश कर रहा है....हाल ही में देखने में आया कि एक के बाद एक एंटरटेनमेंट चैनल ने महिलाओं की दमदार भूमिका वाले कुछ टीवी सीरीयलों का प्रसारण शुरु किया....जिनमें एनडीटीवी इमेजिन पर प्रसारित होने वाला ज्योति, सोनी पर प्रसारित होने वाला लेडिज स्पेशल, पालमपुर एक्सप्रेस, कुछ ऐसे सीरीयल हैं....जो आज की भागमभाग भरी दुनिया में एक संघर्षरत महिला की भूमिका को पेश करने की कोशिश कर रहे हैं....जबकि आज से पहले टीवी महिला को एक कमोडिटी के रुप में पेश करता आ रहा था....महिला को टीवी विज्ञापनों और सीरीयलों में एक कमजोर पात्र के रुप में पेश किया जाता था....उसे ऐसी भूमिकाओं में पेश किया जाता था....जैसे इस जमीं पर वो प्रकृति की सबसे कमजोर प्राणी में से एक है....लेकिन जैसे-जैसे समाज में नारी का कद बढ़ता चला गया....और एक के बाद एक कई महिलाओं ने सफलता के शिखर पर अपने झंडे गाड़े....उसे सिर्फ पूरे समाज ही नहीं, बल्कि टेलिविजन ने भी स्वीकार कर लिया है..... ऐसे में अगर ऊपर वर्णित सीरीयलों के पात्र के बारे में बात करें तो एनडीटीवी पर प्रसारित होने वाला सीरीयल ज्योति एक ऐसी लड़की की कहानी है....जो विषम से विषम परिस्थितियों में पूरी हिम्मत के साथ डटकर उसका सामना करती है....औऱ आज के समाज की ऐसी संघर्षरत महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है....जो तमाम दुखों के बावजूद सारी परेशानियों को सहकर दूसरों की खुशी के लिए अपनी खुशी का त्याग कर देती हैं....जबकि सोनी पर प्रसारित होने वाले पालमपुर एक्सप्रेस की लड़की का किरदार....आज की उस लड़की को दर्शाता है....जिसमें कुछ करने की ललक है....उसमें अपने सपने को सच करने की हिम्मत है....वो भी औरों की तरह आगे बढना चाहती है....अपना एक अलग मुकाम हासिल करना चाहती हैं....इसी के साथ अगर सोनी के ही कार्यक्रम लेडिज स्पेशल की बात की जाए....तो वो तस्वीर है....आज की संघर्षरत नारी की....जो किसी भी सूरत में मर्दों से पीछे नहीं है....वो भी मर्दों की तरह की नौकरी करती है....और परिवार को चलाने में उसकी भी बराबर की हिस्सेदारी होती है....वो भी अपने फैसले लेने की कुव्वद रखती है....
इन सब सीरीयलों को देखकर लगता है कि समाज और टेलिविजन दोनों ने नारी के महत्व को पहचान लिया है....और वो समझ गया है कि....नारी अबला नहीं सबला है....टेलिविजन की इस पहल को एक सकारात्मक पहल कहा जा सकता है....उम्मीद है कि आगे आने वाले समय में भी टेलिविजन इस दिशा में कुछ और महत्वपूर् कदम उठायेगा....

अमित कुमार यादव

शुक्रवार, 22 मई 2009

पत्रकारिता का हथियार पैसा और जुगाड़

पत्रकारिता का हथियार पैसा और जुगाड़....हो सकता है कि कुछ लोगों को इस बात से कोई इत्तेफाक न हो....और उन्हें ये बात सही न लगती हो....लेकिन मेरे संगी-साथी जो....मेरी तरह खबरों की इस दुनिया में संघर्षरत हैं....उन्हें जरुर इसके कुछ मायने नजर आएंगे....आजकल खबरों की दुनिया में दो ही लोगों की चांदी है....जिसके पास या तो किसी रसूखदार व्यक्ति का जुगाड़ है....या फिर वो किसी ऐसे संस्थान से कोर्स कर रहा है....जिसने उसे नौकरी देने का वादा किया हो....मैं यहां पर अपने ही कुछ अनुभव बांटने की कोशिश कर रहा हूं....जिनके बारे में जानकर शायद आप भी मेरी बातों से कुछ इत्तेफाक रखें....मैंने 2005 में दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के कोर्स में दाखिल लिया....ऊपर वाले की नजर अच्छी थी....लिहाजा कोर्स के बीच में ही एक चैनल को पांच महीने अपनी निशुल्क सेवा देने के बाद हमें एक छोटी सी नौकरी मिल गई....2008 में कोर्स खत्म हुआ....हम चैनल में खबरों को समझने में ही लगे हुए थे....यानि नौकरी कर रहे थे....तब हमें भारतीय जनसंचार संस्थान में दाखिला मिल गया....तो हम नौकरी छोड़कर एक बार फिर पीजी डिप्लोमा करने वहां जा पहुंचे....हमारे साथ जो हमारे कुछ मित्र भी पास होकर निकले थे....उनमें से कुछ तो अब भी मेरी तरह अपनी रातें काली कर रहे हैं....यानि फ्री में ही चैनलों में नाइट शिफ्ट में लगे हुए हैं....कुछ लोगों ने ऐसे चैनलों के संस्थानों में दाखिला ले लिया.....जो एक मोटी रकम वसूलने के बाद....नौकरी देने का वादा करते हैं.....शायद आप जान ही गए होंगे कि मैं किनके बारे में बात कर रहा हूं....हम पूरे नौ महीने पत्रकार बनने की कोशिश करते रहे....अब ये तो हम भी नहीं जानते कि हम पत्रकार बन पाये या नहीं....लेकिन मेरे जिन मित्रों ने चैनलों के संस्थानों में दाखिला लिया था....वो जरुरु मीडिया क्लर्क बन गए....मैं यह नहीं कह रहा कि वो लोग पत्रकार नहीं हैं....बल्कि मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हम लोग खबरें लिखने में ही लगे रहे....जबकि वो लोग एक प्रोफेशनल की तरह बाइट, और पीटीसी की पत्रकारिता में हाथ आजमाते रहे....आज आलम यह है कि उनमें से कोई किसी चैनल में एंकर है....कोई रिपोर्टर बनने वाला है....और हम करीब एक साल नौकरी करने के बाद भी दोबारा इंटर्नशिप कर रहे हैं....आम भाषा में कहा जाए तो....बिना पैसे की मजदूरी....अच्छा कुछ लोग ऐसे भी थे....जिन्होने पूरे कोर्स के दौरान मस्ती की.... हालांकि मस्ती हमने भी की....लेकिन टोटल मस्ती नहीं की....हां तो मैं कह रहा था कि कुछ लोगों ने पूरे कोर्स के दौरान मस्ती की....और फिर जय जुगाड़ बाबा की....लग गए किसी को तेल लगाने में और बन बैठे आज की पत्रकारिता के पत्रकार...खैर ये है हमारी आधुनिक पत्रकारिता का चेहरा....पत्रकारिता का हथियार....पैसा और जुगाड़....

अमित कुमार यादव

गुरुवार, 21 मई 2009

बदलते मिजाज

मौसम को रंग बदलते देखा है, बादलों को करवट लेते देखा है, लेकिन आज पहली बार दोस्तों को बदलते देखा है....आईआईएमसी की यादों ने एक बार फिर मुझे जकड़ लिया और एक बार फिर मैं पहुंच गया अपने उन्हीं हसीन दिनों में....लेकिन इतनी मीठी-मीठी यादों के बीच एक कड़वे अनुभव से पाला पड़ गया....कल तक जो दोस्त थे....आज दुश्मन तो नहीं कह सकते....पर हां यह कह सकते हैं कि ऐसे दोस्त नहीं रहे....जैसे उन दिनों में हुआ करते थे.... साथ खाना, साथ पीना, किसी दोस्त के प्यार को पाने में उसकी मदद करना.... माफ कीजिएगा एक राज की बात है लेकिन सच है इसलिए मुझे लिखते हुए कोई संकोच नहीं है....कभी-कभी तो पूरी रात किसी एक लड़की के बारे में बातें करते करते गुजर जाती थी और तो और कई-कई दिनों तक एक-दूसरे के कमरों पर ही वक्त गुजरता था....लेकिन जैसे ही संस्थान के दरवाजे से बाहर निकले....सारा मंजर ही कुछ और है....न अब वो दोस्त है जो परेशानी में हौसला देता था....न वो थाली है जिसमें साथ बैठकर हम लोग खाना खाया करते थे....लेकिन इन सब के बीच पीड़ा तब होती है....जब पता चलता है कि कल तक जो दोस्त तारीफ किया करता था....आज पता चलता है कि पीछे से बुराई कर रहा है....और एक दूसरे के बारे में ऐसी बातें की जा रही हैं....जिन पर विश्वास नहीं होता....कि वो ऐसा कर सकता है....जिस पर इतना भरोसा था....खैर ये सिर्फ मेरी बात नहीं है....ये उन सब दोस्तों की बात है....जो कल तक साथ थे....औऱ आज इस भीड़भाड़ में इधर-उधर खो गए हैं....बस अपनी बात बशीर बद्र के इस शेर के साथ खत्म करता हूं कि.....”उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए”....
अमित कुमार यादव

बुधवार, 20 मई 2009

बहकी पत्रकारिता की डगर

पत्रकारिता को लोकतंत्र को चौथा स्तम्भ कहा जाता है। इसका अर्थ है कि यदि यह स्तम्भ हिला तो लोकतंत्र को नुकसान । लेकिन जहाँ तक मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई की है, हमें बताया गया था कि पत्रकार को किसी भी दिशा में बिना झुके अपना सिर उठाए रखना चाहिए। लेकिन १५ वीं लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद मीडिया में जिस तरह की पत्रकारिता की गई और उनमें जैसी खबरें दीं गईं, उन्हें देखकर और पढ़कर मन से सिर्फ़ तीन शब्द निकले। हाय री पत्रकारिता!

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में तो मैं ज्यादा नहीं कहूँगा, लेकिन प्रिंट मीडिया की ख़बरों को पढ़कर मुझे लगा कि शायद मेरी पत्रकारिता की पढ़ाई व्यर्थ चली गई। इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोकसभा चुनाव के बाद किसी ना किसी पार्टी की सरकार बननी ही थी। लेकिन चुनाव के परिणाम के बाद पत्रकारिता किसी एक पार्टी की तरफ़ बह जाएगी ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि मैं किसी ख़ास पार्टी से ताल्लुख रखता हूँ। हर मतदाता की तरह मैं भी अपने मत का प्रयोग करता हूँ, लेकिन जब पत्रकारिता की बात होती है तो मैं सभी राजनीतिक पार्टियों को ताक पर रखता हूँ।

इस बार लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद प्रिंट मीडिया कांग्रेस की तरफ़ झुकती नजर आ रही है । और ऐसा लग रहा है कि मानों पत्रकारिता अब कांग्रेस की कलम से चलेगी। मैं यहाँ पर स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं कांग्रेस का विरोधी नहीं हूँ। बात यहाँ पर पत्रकारिता की हो रही है। नई दिल्ली से ही प्रकाशित होने वाले एक अखबार ने कांग्रेस के एक नेता के नाम आगे अब 'श्री' लगना शुरू कर दिया है। इस पर जब आज सुबह इस अख़बार को पढ़ते हुए मेरी नज़र पड़ी तो मैं अचंभित हो गया। मैं इस अख़बार को पिछले आठ महीने से पढ़ रहा हूँ और यह अख़बार उसी दौरान दिल्ली से प्रकाशित होना शुरु हुआ था। इससे पहले कभी भी इस अख़बार ने 'श्री' शब्द का प्रयोग नहीं किया था। लेकिन लगता है कि इस प्रसिद्ध अख़बार ने भी पत्रकारिता की सीमा को लाँघ दिया है।

मैं आपको ऐसे अनेक अख़बारों का उदाहरण दे सकता हूँ जिसमें आने वाली नई सरकार के गुण गाने शुरू कर दिए हैं। इसमें कोई दोराय नहीं है कि इस बार कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया है, लेकिन यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। यदि कुछ पहली बार हुआ है तो वह है पत्रकारिता में बदलाव। एक ऐसा बदलाव जिसे देखकर लगता है कि अब पत्रकारिता की परिभाषा बदलने का समय आ गया है। अब पत्रकारिता की ऐसी परिभाषा का इज़ाद की जाए जिसमें चापलूसी, घूसखोरी आदि शब्द शामिल हों। हो सकता है कि किसी को मेरी ये बातें बुरी लग रहीं हों, तो मैं उसके लिए माफ़ी चाहता हूँ। लेकिन हम सत्य को छिपा नहीं सकते। और यह ही सत्य है। एक निष्पक्ष पत्रकारिता इस बार चुनाव के दौरान तो देखने को मिली, लेकिन चुनाव के परिणामों के बाद किसी एक पक्ष में पत्रकारिता का झुकना मुझे आहत कर रहा है।

राजेश भारती

शुक्रवार, 8 मई 2009

इंटर्नशिप थी या फ्रॉडशिप

3 मई 2009........ कल बहुत दिनों बाद उगते और ढलते सूरज को देखा। अरबों लोगों को रोज एक नया संदेश देता ये उगता-ढलता सूरज मेरी जिंदगी से कुछ वक्त के लिए गायब हो गया था। अरें नहीं नहीं यारों..... मैं किसी जेल में नहीं, दरअसल मैं एक टीवी चैनल में अपनी एक महीने की इंटर्नशिप कर रहा था। इंटर्नशिप में मेरा लक्ष्य था सिखना.. जिसके लिए मुझे ईवनिंग शिफ्ट दी गई, वक्त था दोपहर 3 बजे से रात 12 बजे तक। वो बात और है कि इस दौरान मेरी आंखें कुछ सिखने के लिए सिस्टम और कुर्सी को दूरबीन लगा कर तलाशती रहती थी!

2 महीने की इंटर्नशिप, पेड इंटर्नशिप, पॉलिटिकल डेक्स, अच्छा काम किया तो 2 महीने बाद जॉब का लड्डू! ये कहकर चैनल ने हमें बुलाया। ये सब बताकर संस्थान ने हमें भेजा। लेकिन....... न तो 2 महीने की इंटर्नशिप मिली। न तो वो पेड थी। न तो वहां कोई पॉलिटिकल डेक्स था।न अच्छा काम करने पर जॉब मिली। (मैं अच्छा काम कर रहा था, इसका ई-मेल न्यूज रूम से एचआर में किया गया था।)1 महीने बाद बिना कुछ दिए उन्होंने कह दिया जाओ।क्यों का उत्तर दूंगा तो वो एक खुलासे से कम नहीं होगा। और ये खुलासा इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि कलम की स्याही पैसों में आती है जिसे कमाने के लिए बहुत सी चीजों के साथ समझौता करना पड़ता है।

बहरहाल! इन 30 दिनों की इंटर्नशिप के दूसरे ही दिन मुझे टोक दिया गया। कहा- ये तुम्हारें बालों को क्या हुआ। मैंने कहा सर उड़ गए। मुझे हिदायत दे दी गयी कि ये टेलीविजन है स्मार्ट बन कर रहा करो।नई शिफ्ट और शेड्यूल में मुझे ऐसी सीट पर झोंक दिया गया जहां से मेरे एक क्लिक पर स्क्रिन पर न्यूजं फ्लैश होती है। एक हफ्ते काम किया। फिर गलती हुई तो मुझे वहां से हटा दिया गया। भरे न्यूजरुम में ये कहा गया कि तुम्हें यहां बैठाया किसने? ये बात उस शख्स ने मुझे कही थी जिसने मुझे वहां बैठाया था और जिससे पूछकर और जिसे दिखाकर ही मैं न्यूज फ्लैश किया करता था। वो बात अलग है कि वो गलती मेरी नहीं किसी और की थी। बात दिल को चुभी, गुरुजनों को बताई, गुरुजी ने कहा- इस अपमान को भूलों मत, दिल के एक कोने में दबा लो...... सो दबा लिया।

अब तक यहां कि खराब तबीयत को मैं जान चुका था। पत्रकारिता के माहौल में पेन के लिए मारामारी मची रहती थी। मैं नया था। बड़ी विन्रमता के साथ दिए 4 पेन मैं खो चुका था। लिखने का काम वैसे ही नहीं देते थे। ऐसे हालातों में पत्रकार बनने की चाह रखने वाले एक इंटर्न के लिए निश्चित तौर पर ये अशुभ संकेत थे। टीवी पर चल रही थोड़ी गलतियां बताई तो आसपास घूम रहे अनुभवी लोग अपने को इनसिक्योर फील करने लगे।और हां एक बात और! ब्लंडर क्या होता है ये भी मैंन जाना। जिस गलती को सीईओ साहब देख ले, हो ब्लंडर है। बाकी तुम खुदकुशी को खुदखुशी लिखो, टाई की जगह ड्रा लिखो, बीपीएल परिवार की जगह बीजेपी परिवार लिखो, तुम्हारी मर्जी!

अक्सर बात होती है कि पत्रकारिता को मजबूरी में बेचा जा रहा है...... लेकिन यहां जब-जब प्राइम टाइम में गंभीर राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा के लिए ऐड गुरुओं को बतौर गेस्ट एडीटर बुलाया जाता था तो मुझे लगा पत्रकारिता को मजबूरी में नहीं जबरदस्ती बेचा जा रहा है। इवनिंग शिफ्ट में सबका एक ही लक्ष्य रहता था..... बस प्राइम टाइम शो अच्छा निकल जाए। एक दिन मैने प्राइम टाइम शो खत्म होने के बाद इराक में बम फटने, कई लोगों के मारे जाने, और उसके शॉट्स आने की खबर देने की हिमाकत कर दी तो मुझे ये सलाह दी गयी- '' मरने दो सालों को''। आस्ट्रेलिया में चूहों ने जब नर्सिंग होम में मरीज को कुतर कर मौत के करीब ला दिया, और मैंने जब ये खबर और इसके शॉट्स दिये तो उल्टा मुझसे ही एक बहुत गभीर प्रश्न पूछ लिया गया- ''चूहों के मरीज को कुतरते हुए असली शाट्स तो तुमने दिए ही नहीं?''

खैर मुझे वहां कलम की दहाड़ की जगह उसकी सुगबुगाहट जरूर महसूस हुई। इसका एहसास तो मुझे इंटर्नशिप के पहले ही दिन हो गया था जब मैंने सिक्योरिटी गार्ड को जमीन पर पैर ढोंक कर थम मारते हुए सीईओ साहब को सलाम मारते हुए देखा था। असल में वो तानाशाही को सलाम था।मुझे वो आईस्क्रीम वाले का बेबाकपन हमेशा याद आएगा जिसे अक्सर ये शिकायत रहती थी कि इस चैनल के लोग कब उसकी 15 और 20 रुपये वाली आइस्क्रीम को खरीदना शुरू करेंगे! मुझे वो ऑफिस बॉय का निराशावादी रवैया भी याद आएगा जिसने ये कहां था कि ''भैया, पहले तो कोई खाने पीने और स्टेशनरी की चीजों का हिसाब ही नहीं मांगता था लेकिन अब तो पानी की बोतल का भी हिसाब मांगते हैं''। मैं कामना करुंगा कि कम से कम इन लोगों की हसरतें तो पूरी हो!

बुधवार, 6 मई 2009

मजा तो तब आयेगा जब...



मिश्राजी के नाम से शायद ही कोई परिचित न हो। मिश्राजी वो हैं जो जमीन को आसमान और आसमान को जमीन पर उतार दें। मिश्राजी वो हैं जो हाथी को चूहा और चूहा को हाथी बना दें। मिश्राजी वो हैं जो बिहार को दिल्ली और दिल्ली को बिहार बना दें। एक मिश्राजी मेरे भी मित्र हैं तारीफ बहुत हो गयी अब सीधे मिश्राजी के मुख्य मुद्दे पर आता हूं।
मिश्राजी की ज़ुबान पर हमेशा एक ही जुमला रहता है – मज़ा तो तब आयेगा जब....
हमेशा की तरह मिश्राजी ज़ुमला भी बीचे में रोक देते थे और सब का ध्यान दूसरी तरफ ले जाते थे। एक दिन मैं मिश्राजी की इस चालाकी को पकड़ लिया और पूछा – मिश्राजी इ का आप हमेशा बोलते रहते हैं कि मज़ा तो तब आयेगा जब । आप बतवा को अधूरा काहे छोड़ देते हैं बोलना है तो पूरा बोलिये। मिश्राजी मुझे खा जाने वाली नज़रों से घूरे और हमेशा की तरह बोले – का बोले हम, हम बोले लायक हैं तू लोग ना बोलेगा। तब मिश्रा जी को अपनी जमात ( गंगा ढाबा में हम सभी की बैठकी ) से अलग ले जाकर मैं पूछा बताईये ना मिश्राजी उ बतवा जो आप हमेशा बोलते रहते हैं कि मज़ा तो तब आयेगा जब ...
उस दिन मिश्राजी ने पटना में घटी एक घटना से अवगत कराया। जो बहुत ही हास्यप्रद लगा लेकिन वास्तव में यह शब्द बहुत कुछ कह जाता है। मिश्राजी ने अपने शब्दों में जो बयान किया उसे यहां दुहराने की कोशिश कर रहा हूं। मिश्राजी से मेरा आग्रह है कि आप इसे अन्यथा ना लें।
एक दिन पटना के गोलघर के सामने से हम जा रहे थे। वहां का दिखता है, वहां दिखता है कि ए गो आदमी, ए गो आदमी ज़मीन में, ए गो चद्दर बिछा दिया है। और बोल - बोल के भीड़ जुटा रहा है। अरे भीड़ जुटेगा तबे ना उ अपना तमाशा दिखायेगा। भीड़े ना रहेगा तो तमशवा के देखेगा। उ अपना डब्बा ( ढोल ) पीट - पीट के पांचे मिनट में बहुते भीड़ जुटा लिया। और सब कौतुहल वश सामने बिछा चद्दरवा देखने लगा। हम भी पहुंच गये तमाशा देखने। उ आदमी बार - बार एके गो बतिया बोल रहा था कि मज़ा तो तब आयेगा जब... हम भी नहीं समझे कि इ भीड़ जुटा के का मज़ा दिखावे वाला है। फिर पंद्रह मिनट बाद देखते हैं कि जमीन में बिछल चद्दर उपर उठने लगा। चद्दर को उपर उठते देख सभी भौंचक हो गये। अब हम आपको बता दें कि पटना शहर में आसपास से बहुते लड़का पढ़े आता है। कुछ साइंस का, कुछ आर्टस् का, तो कुछ कामर्स का। अब मज़ा तो इ आया कि साइंस वाला लड़कवन सोचे लगा कि जरुर इ नीचे में ए गो पाईप फीट किया होगा जिससे हवा निकलता होगा और चदरिया को उपर उठा रहा है। लेकिन असल तो किसी को पता नहीं ना। अरे पता चल जायेगा तो मज़ा कैसे आयेगा और उ गरीब अपना पेट कैसे भरेगा।
उ जो बोलता था ना - मज़ा तो तब आयेगा जब... चदरा मदरा लेकर उड़ेगा।
मिश्राजी ने रहस्योद्धाटन किया कि मज़ा तो तब आयेगा जब चदरा मदरा ले कर उड़ेगा। इस बात का मतलब मैं नहीं समझ सका और मैं पूछता रहा लेकिन मिश्राजी इसका मतलब नहीं बताये। मिश्राजी कहते रहे - देखते जाओ मज़ा तो तब आयेगा जब...। यह बात मुझे अब समझ में आयी। मैं आपको बताना नहीं चाहता लेकिन आप इस बात को समझ जायेंगे, क्यों मिश्राजी यह बात कहते रहते थे, मिश्राजी क्यों चूहा को हाथी बना देते थे। पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद मिश्राजी ने एक अच्छा मुकाम हासिल किया। मिश्राजी का प्लेसमेंट बिज़नेस भास्कर में हो गया। कभी - कभी मैं मिश्राजी से गंगा ढाबा में मिलता हूं और उनकी बात को याद कर मुस्कुराता हूं।

रविवार, 3 मई 2009

लोकतंत्र के चौथे पाये का भगवान ही मालिक

अमित कुमार यादव

टीवी पत्रकारिता में काम करने के लिए सिर्फ सुंदर दिखना ही काबिलियत बनकर रह गया है। अभी हाल ही में दो तीन ऐसी घटनाएं हुई कि टीवी चैनल की दुनिया से घृणा सी होने लगी है। इन दिनों एक निजी चैनल में इंटर्नशिप कर रहा हूं। चैनल का नाम लेना उचित नहीं है। यहां एक दिन ऐसा वाकया पेश आया कि एक मोहतरमा जो चैनल में पिछले करीब एक दो सालों से काम कर रही हैं, उन्हें प्रणब मुखर्जी की बाइट कटाने के लिए बोला गया। प्रणब मुखर्जी यूपीए सरकार की उपलब्धियों के बारे में बात कर रहे थे। इन मोहतरमा पांच छ बार बाइट को सुना होगा। इसके बाद वीडियो एडिटर के कान में इन्होने होले से पूछा कि ये यूपीए कौन सी पार्टी है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अगर ऐसे लोग पत्रकारिता करने आएंगे तो लोकतंत्र के इस चौथे पाये का भगवान ही मालिक है। दूसरे वाकया मेरे एक मित्र के साथ हुआ। मेरे क्लास के चार लोगों को एक चैनल में इंटर्नशिप के लिए भेजा गया। चैनल में जाने के बाद चैनल ने जिस आधार पर छात्रों का चुनाव किया, जब आपको पता चलेगा तो आप शायद आधुनिक पत्रकारिता के इस चेहरे पर विश्वास न करें। जिस शख्स को इन लोगों में से कुछ को चुनना था उन्होने सभी लोगों के चेहरे देखें और जो उन्हें अच्छा लगा, उसी आधार पर उन्हें इंटर्नशिप पर रख लिया गया। अगर पत्रकारिता करने के लिए सुंदर होना सब कुछ रह गया है तो फिर मेरे जैसे सांवले और काले लोगों को तो अपना भविष्य देख ही लेना चाहिए।

मुरली की चाय

पुरानी जींस और गिटार, मुहल्ले की वो सड़क और मेरे यार, रेडियो पर ये गाना सुना तो फिर से मन लौट गया उन्हीं गलियों में जहां जिंदगी का एक हसीन लम्हा बिताया। आईआईएमसी के नौ महीने मेरे लिए हनीमून की तरह थे। हरियाली और पक्षियों के कलरव के बीच पत्थरों पर बैठकर मुरली की चाय की चुस्की लेना और दोस्तों के साथ गपशप लड़ाना एक कभी न भूलने वाला पल है। दस बजे की क्लास के लिए सुबह साढे नौ बजे उठकर जल्दी जल्दी भागना, इतना ही नहीं इससे पहले एक प्याली चाय पीना सब बहुत याद आता है।मुरली.....जितनी मीठी मुरली की तान, उतनी मीठी मुरली की चा। दस से पांच बजे तक की क्लास के बीच पांच-छः प्याली चाय गटकना आम बात थी। मुरली की दुकान हमारे लिए एक मंच थी- विचारों के लेन-देन का, बहस-मुहाबसे का। मुरली की दुकान पर जहां पूरे दिन का प्लान तय होता था, वहीं अगर वक्त मिलता तो लालू और सोनिया की बातें भी होती थी। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि कभी-कभार मूड खराब होता था तो , राजनीति पर भी बहस होती थी। मुरली की दुकान समाज को समझने का एक ठिकाना थी। मुझे याद आता है कि एक मजदूर मुरली की दुकान पर चाय पीने के लिए आता था। अगर मैं उसका एक रुपक पेश करुं तो जर्जर काया, कंधे पर पड़ा एक गमछा और एक धोती के अलावा शायद और उसके पास कुछ नहीं था। यह सब देखकर ह्रदय में एक पीड़ा होती थी कि, एसी के बंद कमरे में बैठकर बार-२ यह कहना कि देश के करीब ८० प्रतिशत लोग २० रुपए प्रतिदिन पर गुजारा करते हैं, सब व्यर्थ है बेकार है। खैर मैं भी कहां समाजवादियों की तरह बातें करने लगा, जो मंचों पर तो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन असल में उन्हें यह सब देखकर कोई फर्क नहीं पड़ता। कुल मिलाकर मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि आईआईएमसी के अहाते में मुरली की चाय की दुकान का एक अलग महत्व था। मुरली की चाय पीते-पीते ५-६ महीने मजे से बीते, लेकिन एक दिन अचानक पता चला कि मुरली को वहां से हटा दिया गया है। हमारे बीच से मुरली की दुकान का जाना सिर्फ यह नहीं था कि हमें अब उसकी चाय से वंचित होना पड़ेगा, बल्कि वहां होने वाली बहसें, विचारों का लेन-देन सब खत्म हो जायेगा। ५-६ महीने में हमारा मुरली के प्रति एक लगाव सा हो गया था, जिसे हम ऐसे तोड़ना नहीं चाहते थे। लिहाजा हमने सोचा कि इसके खिलाफ प्रशासन के पास जाएंगे। हमने ये बात अपने गुरुओं के सामने रखी, लेकिन वो भी किसी के आदेश तले दबे थे। हम लोग कुछ नहीं कर पाए। मुरली को वहां से हटा दिया गया। मुरली को हटाने के पीछे कारण दिया गया, छात्रों का मुरली की दुकान पर सिगरेट के छल्ले उड़ाना, जो दुकान हटने के बाद भी जारी रहा। क्योंकि आप किसी से उसकी रोटी छिन सकते हैं, लेकिन उसकी भूख खत्म नहीं कर सकते और एक सिगरेट पीने वाले को अगर सिगरेट पीनी होगी तो वो कहीं से भी लाकर पिएगा। मुरली को हटाने का असल कारण सिगरेट पीना नहीँ था, बल्कि मामला था मुरली की चाय की वजह से कैंटीन वाले की चाय में उबाल न आना। ज्यादातर छात्र मुरली की दुकान पर चाय पीते थे। कोई कैंटीन की वो बकवास चाय पीना पसंद नहीं करता था। बस सिगरेट का बहाना बनाकर मुरली पर नकेल कस दी गई। कुछ दिनों बाद एक सुबह मुरली को संस्थान के बगीचे में फावड़ा चलाते देखा, तो एक पीड़ा की अनुभूति हुई, लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। एक गरीब को कैसे न कैसे तो अपना पेट पालना ही था। मुरली वहां से चला गया लेकिन आज भी जब संस्थान जाता हूं तो मुरली की याद फिर से ताजा हो जाती है।

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

भूली बिसरी यादें....(भाग-2)

हेमेन्द्र मिश्र
बिहार के महत्वपूर्ण जिले में दरभंगा का नाम आता है। यह जिला माछ(मछली),पान और मखान के लिए प्रसिद्ध है। इसके साथ ही मिथिला पेन्टिंग के विविध आयाम भी यहां दिखते हैं। साहित्यिक माहौल की अगर चर्चा करें तो बता दूं कि यह जिला कई कवियों का कर्मस्थल भी रहा है। तो दोस्तों, सांस्कृतिक और साहित्यिक रुप से उर्वर इसी दरभंगा में ही मेरा बचपन बीता है।
मेरा रुझान शुरु से ही मीडिया फिल्ड की तरफ रहा है। इग्नू से ग्रेजुएशन करने के दौरान ही मेंने स्थानीय टीवी में काम करना शुरु कर दिया था। इसी दरम्यान मैंने आईआईएमसी के बारे में सुना। बेहतर मंच की उम्मीद पाले मैंने इसकी परीक्षा दी। पहले प्रयास में ही सफलता ने मेरे उत्साह को बढ़ाया। और यही उम्मीद पाले मैं पहुंच गया आईआईएमसी ।
हालांकि साक्षात्कार देने मैंने जब संस्थान में पहला कदम रखा तो यहां के माहौल ने मुझे काफी रोमांचित किया। दरभंगा से पहली बार बाहर निकला था। एसी में बैठने का कोई खास मौका नहीं मिला था। पढ़ाई में टीवी की भी भूमिका होती है- यह इसके क्लासरुम को देखकर पहली बार अनुभव किया। हालांकि टेलीविजन के साथ पढ़ाई की बातें तो सुन रखी थी। लेकिन बिहार या दरभंगा में ऐसा कोई अपना अनुभव नहीं रहा।

इसमें दो राय नहीं कि छोटे शहरों से काफी संख्या में छात्रों की जमात दिल्ली जैसी महानगर में पहुंचती है। इसका मुख्य कारण यह है कि यहां संभावनाएं और अवसर काफी हैं। हालांकि सफलता का स्वाद सभी नहीं चख पाते। लेकिन इतना तो तय है कि हाथ और पेट का संबंध बनने में यहां ज्यादा मुश्किलें नहीं आती। यानि हाथ को काम और पेट के लिए भोजन की व्यवस्था यहां हो ही जाती है। मन में इसी आशा और विश्वास के साथ मैं भी दिल्ली को अपना कर्मस्थल बना रहा हूं।

मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

एक अजब सी उलझन

सीने में जलन, आंखों में तूफान सा क्यूं है

इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है,

कुछ ऐसे ही उलझन के दौर से आजकल मैं गुजर रहा हूं। क्या कर रहा हूं, क्या करना चाहता हूं। कुछ पता नहीं है। नदी के जल की तरह ऐसे ही बहा जा रहा हूं। इस बात से नावाकिफ कि मेरी मंजिल कहां है। दिल्ली विश्वविद्यालय से पत्रकारिता करने के बाद जब आईआईएमसी की दहलीज पर पहुंचा था तो ऐसा लगा था मानो अब जिंदगी की गाड़ी सही ट्रैक पर आ गयी है। लेकिन अब जिस स्थिति में हूं, उसे सोचकर लगता है कि ? अब अपने ऊपर भी एक शक होने लगा है कि शायद मैं ही पत्रकारिता करने के लायक नहीं बचा। वजह यह नहीं है कि आज मेरे पास नौकरी नहीं है। परंतु मुझे आने वाला समय भी कुछ बेहतर नहीं दिख रहा है। नौबत ये आ गयी है कि अब घर पर खाली बैठना पड़ सकता है। क्योंकि इतना धैर्य नहीं रहा है कि एक साल के करीब इंटर्नशिप करने एक बार फिर दोबारा से पांच, छ महीना इंटर्नशिप कर सकूं। लेकिन फिर सोचता हूं कि मेरे पास इसके अलावा और कोई विकल्प भी तो नहीं है। लेकिन फिर भी मैंने एक नौकरी छोड़कर रिस्क लिया था और एक बार फिर मैं ये इंटर्नशिप छोड़कर रिस्क लेने जा रहा हूं। हो सकता है कि मेरा फैसला गलत भी हो सकता है लेकिन जिंदगी खुद एक जोखिम है और अगर जिंदगी में जोखिम ही नहीं लिया तो फिर उसका कोई अर्थ नहीं है।

भूली बिसरी यादें...(भाग-१)

हेमेन्द्र मिश्र
इधर काफी दिनों से कुछ लिखने की सोच रहा था। कौशल भाई से बराबर लिखने को लेकर बात भी हो रही थी। लेकिन समय नहीं मिलने के कारण मैं यह नहीं कर सका। खैर, काम करने के दौरान ही अपना यह अनुभव लिख रहा हूं।
आईआईएमसी के नौ महीने कब गुजर गए पता ही नहीं चला। हमें इस बात का इल्म ही नहीं रहा कि हमने उस समय पत्रकारिता के मिशन को अपनाया जब मूल्क आर्थिक मंदी की चपेट में है। शायद इसी नासमझी में हमनें यह कभी नहीं सोचा कि संस्थान के बाहर की जिंदगी में हमें कई कठिनाईयों का सामना करना होगा। लेकिन कहते हैं कि जेठ की तपिश जितनी तेज होगी बरसात की उम्मीद उतनी ज्यादा होगी। इसी सूत्र वाक्य के साथ अमित और दिवाकर के साथ मैंने इंडिया न्यूज में कदम रखा। मन में यह आशा और विश्वास था कि देर-सवेर नौकरी की व्यवस्था तो हो ही जाएगी।
इंडिया न्यूज में काम करते हुए एक महीने होने को हैं। इस एक महीने हमने खासकर मैंने काफी कुछ सीखा। शुरुआती दो दिन छोड़ दें तो हमने यहां रात की शिफ्ट की है। हमारे शिफ्ट इंचार्ज राजीव जी हैं। भले मानस और एक नेक इंसान।ये हमलोगों को काफी सहयोग देते हैं। ठीक इसी तरह हमारे संस्थान के ही विवेक सत्य मित्रम जी भी यहीं हैं। स्क्रिप्ट लिखने की इनकी शैली लाजवाव है। प्रोफेशनल कॉपी लिखने में इन्हें महारथ हासिल है। प्राय: सभी की स्क्रिप्ट यही देखते हैं और सामान्यत: सभी की कॉपी दुबारा लिखते हैं। अपने काम के प्रति अगर आपको संजीदगी और संतुष्टी देखनी हो तो विवेक जी को देखकर समझा जा सकता है। इसी तरह अतुल जी और अमितेश जी भी रात की शिफ्ट में हैं, जिनके साथ काम करना एक सुखद अनुभव है।
इस अनुभव को पढ़ने के बाद आप सोच रहें होंगे कि आखिर हेमेन्द्र ने ऐसी यादों के साथ लिखने की शुरुआत क्यों की। तो मेरे दोस्तों शुरुआत हमेशा सकारात्मत बातों से होनी चाहिए। कोई भी परफेक्ट नहीं होता। सबने कुछ न कुछ कमियां होती है। लेकिन हमें उनकी कमियां नहीं बल्कि उनकी अच्छाइयों को अपनाना चाहिए। अभी यह परिचय है बाकी बातें तो होती ही रहेगी......