बुधवार, 29 अप्रैल 2009

भूली बिसरी यादें....(भाग-2)

हेमेन्द्र मिश्र
बिहार के महत्वपूर्ण जिले में दरभंगा का नाम आता है। यह जिला माछ(मछली),पान और मखान के लिए प्रसिद्ध है। इसके साथ ही मिथिला पेन्टिंग के विविध आयाम भी यहां दिखते हैं। साहित्यिक माहौल की अगर चर्चा करें तो बता दूं कि यह जिला कई कवियों का कर्मस्थल भी रहा है। तो दोस्तों, सांस्कृतिक और साहित्यिक रुप से उर्वर इसी दरभंगा में ही मेरा बचपन बीता है।
मेरा रुझान शुरु से ही मीडिया फिल्ड की तरफ रहा है। इग्नू से ग्रेजुएशन करने के दौरान ही मेंने स्थानीय टीवी में काम करना शुरु कर दिया था। इसी दरम्यान मैंने आईआईएमसी के बारे में सुना। बेहतर मंच की उम्मीद पाले मैंने इसकी परीक्षा दी। पहले प्रयास में ही सफलता ने मेरे उत्साह को बढ़ाया। और यही उम्मीद पाले मैं पहुंच गया आईआईएमसी ।
हालांकि साक्षात्कार देने मैंने जब संस्थान में पहला कदम रखा तो यहां के माहौल ने मुझे काफी रोमांचित किया। दरभंगा से पहली बार बाहर निकला था। एसी में बैठने का कोई खास मौका नहीं मिला था। पढ़ाई में टीवी की भी भूमिका होती है- यह इसके क्लासरुम को देखकर पहली बार अनुभव किया। हालांकि टेलीविजन के साथ पढ़ाई की बातें तो सुन रखी थी। लेकिन बिहार या दरभंगा में ऐसा कोई अपना अनुभव नहीं रहा।

इसमें दो राय नहीं कि छोटे शहरों से काफी संख्या में छात्रों की जमात दिल्ली जैसी महानगर में पहुंचती है। इसका मुख्य कारण यह है कि यहां संभावनाएं और अवसर काफी हैं। हालांकि सफलता का स्वाद सभी नहीं चख पाते। लेकिन इतना तो तय है कि हाथ और पेट का संबंध बनने में यहां ज्यादा मुश्किलें नहीं आती। यानि हाथ को काम और पेट के लिए भोजन की व्यवस्था यहां हो ही जाती है। मन में इसी आशा और विश्वास के साथ मैं भी दिल्ली को अपना कर्मस्थल बना रहा हूं।

मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

एक अजब सी उलझन

सीने में जलन, आंखों में तूफान सा क्यूं है

इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है,

कुछ ऐसे ही उलझन के दौर से आजकल मैं गुजर रहा हूं। क्या कर रहा हूं, क्या करना चाहता हूं। कुछ पता नहीं है। नदी के जल की तरह ऐसे ही बहा जा रहा हूं। इस बात से नावाकिफ कि मेरी मंजिल कहां है। दिल्ली विश्वविद्यालय से पत्रकारिता करने के बाद जब आईआईएमसी की दहलीज पर पहुंचा था तो ऐसा लगा था मानो अब जिंदगी की गाड़ी सही ट्रैक पर आ गयी है। लेकिन अब जिस स्थिति में हूं, उसे सोचकर लगता है कि ? अब अपने ऊपर भी एक शक होने लगा है कि शायद मैं ही पत्रकारिता करने के लायक नहीं बचा। वजह यह नहीं है कि आज मेरे पास नौकरी नहीं है। परंतु मुझे आने वाला समय भी कुछ बेहतर नहीं दिख रहा है। नौबत ये आ गयी है कि अब घर पर खाली बैठना पड़ सकता है। क्योंकि इतना धैर्य नहीं रहा है कि एक साल के करीब इंटर्नशिप करने एक बार फिर दोबारा से पांच, छ महीना इंटर्नशिप कर सकूं। लेकिन फिर सोचता हूं कि मेरे पास इसके अलावा और कोई विकल्प भी तो नहीं है। लेकिन फिर भी मैंने एक नौकरी छोड़कर रिस्क लिया था और एक बार फिर मैं ये इंटर्नशिप छोड़कर रिस्क लेने जा रहा हूं। हो सकता है कि मेरा फैसला गलत भी हो सकता है लेकिन जिंदगी खुद एक जोखिम है और अगर जिंदगी में जोखिम ही नहीं लिया तो फिर उसका कोई अर्थ नहीं है।

भूली बिसरी यादें...(भाग-१)

हेमेन्द्र मिश्र
इधर काफी दिनों से कुछ लिखने की सोच रहा था। कौशल भाई से बराबर लिखने को लेकर बात भी हो रही थी। लेकिन समय नहीं मिलने के कारण मैं यह नहीं कर सका। खैर, काम करने के दौरान ही अपना यह अनुभव लिख रहा हूं।
आईआईएमसी के नौ महीने कब गुजर गए पता ही नहीं चला। हमें इस बात का इल्म ही नहीं रहा कि हमने उस समय पत्रकारिता के मिशन को अपनाया जब मूल्क आर्थिक मंदी की चपेट में है। शायद इसी नासमझी में हमनें यह कभी नहीं सोचा कि संस्थान के बाहर की जिंदगी में हमें कई कठिनाईयों का सामना करना होगा। लेकिन कहते हैं कि जेठ की तपिश जितनी तेज होगी बरसात की उम्मीद उतनी ज्यादा होगी। इसी सूत्र वाक्य के साथ अमित और दिवाकर के साथ मैंने इंडिया न्यूज में कदम रखा। मन में यह आशा और विश्वास था कि देर-सवेर नौकरी की व्यवस्था तो हो ही जाएगी।
इंडिया न्यूज में काम करते हुए एक महीने होने को हैं। इस एक महीने हमने खासकर मैंने काफी कुछ सीखा। शुरुआती दो दिन छोड़ दें तो हमने यहां रात की शिफ्ट की है। हमारे शिफ्ट इंचार्ज राजीव जी हैं। भले मानस और एक नेक इंसान।ये हमलोगों को काफी सहयोग देते हैं। ठीक इसी तरह हमारे संस्थान के ही विवेक सत्य मित्रम जी भी यहीं हैं। स्क्रिप्ट लिखने की इनकी शैली लाजवाव है। प्रोफेशनल कॉपी लिखने में इन्हें महारथ हासिल है। प्राय: सभी की स्क्रिप्ट यही देखते हैं और सामान्यत: सभी की कॉपी दुबारा लिखते हैं। अपने काम के प्रति अगर आपको संजीदगी और संतुष्टी देखनी हो तो विवेक जी को देखकर समझा जा सकता है। इसी तरह अतुल जी और अमितेश जी भी रात की शिफ्ट में हैं, जिनके साथ काम करना एक सुखद अनुभव है।
इस अनुभव को पढ़ने के बाद आप सोच रहें होंगे कि आखिर हेमेन्द्र ने ऐसी यादों के साथ लिखने की शुरुआत क्यों की। तो मेरे दोस्तों शुरुआत हमेशा सकारात्मत बातों से होनी चाहिए। कोई भी परफेक्ट नहीं होता। सबने कुछ न कुछ कमियां होती है। लेकिन हमें उनकी कमियां नहीं बल्कि उनकी अच्छाइयों को अपनाना चाहिए। अभी यह परिचय है बाकी बातें तो होती ही रहेगी......