3 मई 2009........ कल बहुत दिनों बाद उगते और ढलते सूरज को देखा। अरबों लोगों को रोज एक नया संदेश देता ये उगता-ढलता सूरज मेरी जिंदगी से कुछ वक्त के लिए गायब हो गया था। अरें नहीं नहीं यारों..... मैं किसी जेल में नहीं, दरअसल मैं एक टीवी चैनल में अपनी एक महीने की इंटर्नशिप कर रहा था। इंटर्नशिप में मेरा लक्ष्य था सिखना.. जिसके लिए मुझे ईवनिंग शिफ्ट दी गई, वक्त था दोपहर 3 बजे से रात 12 बजे तक। वो बात और है कि इस दौरान मेरी आंखें कुछ सिखने के लिए सिस्टम और कुर्सी को दूरबीन लगा कर तलाशती रहती थी!
2 महीने की इंटर्नशिप, पेड इंटर्नशिप, पॉलिटिकल डेक्स, अच्छा काम किया तो 2 महीने बाद जॉब का लड्डू! ये कहकर चैनल ने हमें बुलाया। ये सब बताकर संस्थान ने हमें भेजा। लेकिन....... न तो 2 महीने की इंटर्नशिप मिली। न तो वो पेड थी। न तो वहां कोई पॉलिटिकल डेक्स था।न अच्छा काम करने पर जॉब मिली। (मैं अच्छा काम कर रहा था, इसका ई-मेल न्यूज रूम से एचआर में किया गया था।)1 महीने बाद बिना कुछ दिए उन्होंने कह दिया जाओ।क्यों का उत्तर दूंगा तो वो एक खुलासे से कम नहीं होगा। और ये खुलासा इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि कलम की स्याही पैसों में आती है जिसे कमाने के लिए बहुत सी चीजों के साथ समझौता करना पड़ता है।
बहरहाल! इन 30 दिनों की इंटर्नशिप के दूसरे ही दिन मुझे टोक दिया गया। कहा- ये तुम्हारें बालों को क्या हुआ। मैंने कहा सर उड़ गए। मुझे हिदायत दे दी गयी कि ये टेलीविजन है स्मार्ट बन कर रहा करो।नई शिफ्ट और शेड्यूल में मुझे ऐसी सीट पर झोंक दिया गया जहां से मेरे एक क्लिक पर स्क्रिन पर न्यूजं फ्लैश होती है। एक हफ्ते काम किया। फिर गलती हुई तो मुझे वहां से हटा दिया गया। भरे न्यूजरुम में ये कहा गया कि तुम्हें यहां बैठाया किसने? ये बात उस शख्स ने मुझे कही थी जिसने मुझे वहां बैठाया था और जिससे पूछकर और जिसे दिखाकर ही मैं न्यूज फ्लैश किया करता था। वो बात अलग है कि वो गलती मेरी नहीं किसी और की थी। बात दिल को चुभी, गुरुजनों को बताई, गुरुजी ने कहा- इस अपमान को भूलों मत, दिल के एक कोने में दबा लो...... सो दबा लिया।
अब तक यहां कि खराब तबीयत को मैं जान चुका था। पत्रकारिता के माहौल में पेन के लिए मारामारी मची रहती थी। मैं नया था। बड़ी विन्रमता के साथ दिए 4 पेन मैं खो चुका था। लिखने का काम वैसे ही नहीं देते थे। ऐसे हालातों में पत्रकार बनने की चाह रखने वाले एक इंटर्न के लिए निश्चित तौर पर ये अशुभ संकेत थे। टीवी पर चल रही थोड़ी गलतियां बताई तो आसपास घूम रहे अनुभवी लोग अपने को इनसिक्योर फील करने लगे।और हां एक बात और! ब्लंडर क्या होता है ये भी मैंन जाना। जिस गलती को सीईओ साहब देख ले, हो ब्लंडर है। बाकी तुम खुदकुशी को खुदखुशी लिखो, टाई की जगह ड्रा लिखो, बीपीएल परिवार की जगह बीजेपी परिवार लिखो, तुम्हारी मर्जी!
अक्सर बात होती है कि पत्रकारिता को मजबूरी में बेचा जा रहा है...... लेकिन यहां जब-जब प्राइम टाइम में गंभीर राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा के लिए ऐड गुरुओं को बतौर गेस्ट एडीटर बुलाया जाता था तो मुझे लगा पत्रकारिता को मजबूरी में नहीं जबरदस्ती बेचा जा रहा है। इवनिंग शिफ्ट में सबका एक ही लक्ष्य रहता था..... बस प्राइम टाइम शो अच्छा निकल जाए। एक दिन मैने प्राइम टाइम शो खत्म होने के बाद इराक में बम फटने, कई लोगों के मारे जाने, और उसके शॉट्स आने की खबर देने की हिमाकत कर दी तो मुझे ये सलाह दी गयी- '' मरने दो सालों को''। आस्ट्रेलिया में चूहों ने जब नर्सिंग होम में मरीज को कुतर कर मौत के करीब ला दिया, और मैंने जब ये खबर और इसके शॉट्स दिये तो उल्टा मुझसे ही एक बहुत गभीर प्रश्न पूछ लिया गया- ''चूहों के मरीज को कुतरते हुए असली शाट्स तो तुमने दिए ही नहीं?''
खैर मुझे वहां कलम की दहाड़ की जगह उसकी सुगबुगाहट जरूर महसूस हुई। इसका एहसास तो मुझे इंटर्नशिप के पहले ही दिन हो गया था जब मैंने सिक्योरिटी गार्ड को जमीन पर पैर ढोंक कर थम मारते हुए सीईओ साहब को सलाम मारते हुए देखा था। असल में वो तानाशाही को सलाम था।मुझे वो आईस्क्रीम वाले का बेबाकपन हमेशा याद आएगा जिसे अक्सर ये शिकायत रहती थी कि इस चैनल के लोग कब उसकी 15 और 20 रुपये वाली आइस्क्रीम को खरीदना शुरू करेंगे! मुझे वो ऑफिस बॉय का निराशावादी रवैया भी याद आएगा जिसने ये कहां था कि ''भैया, पहले तो कोई खाने पीने और स्टेशनरी की चीजों का हिसाब ही नहीं मांगता था लेकिन अब तो पानी की बोतल का भी हिसाब मांगते हैं''। मैं कामना करुंगा कि कम से कम इन लोगों की हसरतें तो पूरी हो!