रविवार, 22 नवंबर 2009

फुटपाथ पर अखबार बिछाके

सो जाते हैं फुटपाथ पर अखबार बिछाके मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते
आज तक कई बार मुनव्वर राणा के इस शेर को सुना....और लोगों को सुनाया...लेकिन इस शेर में असल मर्म क्या छिपा है....उसे मैंने जाना 16 नवंबर की तारीख को....दरअसल हुआ कुछ यूं कि...उस दिन बारिश की वजह से मैं अपने घर नहीं जा पाया...औऱ मुझे अपने एक मित्र के यहां रात गुजारने के लिए जाना पड़ा....और वो पूरी रात हम दोनों ने बाटला हाउस की एक चाय की दुकान पर काटी...और वहीं मैंने इस शेर में छिपे असल मर्म को जाना....चाय की दुकान के पास ही एक टिन शेड के नीचे कुछ लोग सोए हुए थे...रुक-रुक कर बारिश हो रही थी...चाय वाले की दुकान लोगों का आना-जना लगा हुआ था...लेकिन इतने शोर-शराबे के बावजूद...ये लोग अपने दर्द के बिस्तर पर चैन की नींद ले रहे थे...तभी अचानक बारिश तेज होने लगी....औऱ धीरे-धीरे बारिश की फुहाल टिन शेड के नीचे सोए लोगों के पास तक पहुंचने लगी....टिन के नीचे सोए लोग बारिश में भीगने लगे...इसके बावजूद वो लोग इस कदर चैन की नींद में डूबे थे...जैसे उनके नीचे मखमली बिस्तर लगा हो...और वो उस पर बड़े चैन के साथ सोए हों....तभी अचानक मेरे जुबान पर करकस राणा का ये शेर आ गया....
सो जाते हैं फुटपाथ पर अखबार बिछाके

मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते

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