सोमवार, 1 जून 2009

यादों के झरोखे से


यादों के झरोखे से
गौर से देखिये इस फोटो को यह फोटो मेरे एक बहुत ही खास मित्र की है, जो अब नहीं है। अरे नहीं है का मतलब मेरी मित्रता नहीं टूटी है, अब वो दिल्ली में नहीं है। वह इलाहाबाद चला गया है। दिल वालों की दिल्ली भी मेरे मित्र को रोक नहीं सकी। वक्त का तकाजा है जो आज हमसे वह जुदा है। वरना इन फिजाओं में इतना दम कहां।
मिश्राजी मेरे बहुत करीबी मित्र थे। उनकी हर बात अरे यार से शुरु होकर क्या कहा पर खत्म होती थी। मिश्राजी और मेरी मित्रता इतनी गाढ़ी थी कि वह अपने रुम के बजाये मेरे रुम में आकर गपियाते थे। हां यह बात दीगर है कि रुम में वह मुझसे नहीं, फोन पर किसी दुसरे मित्र से देर रात तक बतियाते थे। मिश्राजी मुझसे कभी किसी बात पर नाराज नहीं होते थे। चाहे उनका जरुरी काम समय पर करके ना दूं।
मिश्राजी की एक जुमले की मैं हमेशा तारीफ करुंगा। उनके जुबान पर यह जुमला हमेशा रहता था - अरे छोड़ो यार । हमेशा मुस्कुराना उनकी फितरत में शुमार था। एक बार इसी बात पर लंबी बहस हो गयी। हमारी जमात गंगा ढाबा में जमी और एक मुद्दे पर बहस शुरु हो गई। मिश्राजी ने अपना जुमला ठोक दिया - अरे छोड़ो यार। बस क्या था कुछ मित्रों की भवें तन गयी। बात बहुत छोटी थी, मुद्दा था कि हमारे मित्र का जन्मोत्सव कैसे मनायी जाये। बात बढ़ते देख मिश्राजी ने भांप लिया की मेरे जुमले से मित्रगण नाराज हो गये हैं, तो उन्होंने फिर वही जुमला दे मारा - अरे छोड़ो यार, हो जायेगा इंतजाम। मिश्राजी हर मौके को भांप लेते थे और स्थिति बिगड़ने से पहले ही संभाल लेते थे।
मिश्राजी नौकरशाह बनना चाहते थे। नौकरशाह बनना आसान नहीं, इसके लिये कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं यह उनको अच्छी तरह से पता है, जो इसका सपना संजोये रखते हैं। वजह यही थी कि मिश्राजी नौकरशाही की तैयारी के लिये फौरन दिल्ली से इलाहाबाद के लिये रवाना हो गये। कुछ छोड़ कर आये थे और बहुत कुछ लेकर गये के तर्ज पर वापस मिश्राजी निकल लिये, और अपने मित्रों के बीच कुछ यादगार पल छोड़ गये। कहते हैं अकबर के दरबार में नौ रत्न हुआ करते थे और यह कहना उचित होगा कि हमारी जमातियां में मणेन्द्र मिश्रा भी एक रत्न थे।

2 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा लिखा है। विषय भी बिल्कुल अलग है। लेकिन भाई अब मिश्राओं को छोड़ दो यार!

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  2. कैसे छोड़ दूं यार मेरे अच्छे मित्र थे वैसे भी मिश्राओं का ही बोलबाला है...

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