शनिवार, 30 मई 2009

२५ मई से बदल रहा है


25 मई से बदल रहा है....25 मई से छोटे पर्दे के कार्यक्रमों में जो बदलाव आया....उसे देखकर लगता है कि महिलाओं को सिर्फ एक कमोडिटी की भांति प्रयोग करता आ रहा टेलिविजन अब कुछ बदल रहा है....और आज की आधुनिक संघर्षरत महिला की छवि को देश के सामने पेश करने की कोशिश कर रहा है....हाल ही में देखने में आया कि एक के बाद एक एंटरटेनमेंट चैनल ने महिलाओं की दमदार भूमिका वाले कुछ टीवी सीरीयलों का प्रसारण शुरु किया....जिनमें एनडीटीवी इमेजिन पर प्रसारित होने वाला ज्योति, सोनी पर प्रसारित होने वाला लेडिज स्पेशल, पालमपुर एक्सप्रेस, कुछ ऐसे सीरीयल हैं....जो आज की भागमभाग भरी दुनिया में एक संघर्षरत महिला की भूमिका को पेश करने की कोशिश कर रहे हैं....जबकि आज से पहले टीवी महिला को एक कमोडिटी के रुप में पेश करता आ रहा था....महिला को टीवी विज्ञापनों और सीरीयलों में एक कमजोर पात्र के रुप में पेश किया जाता था....उसे ऐसी भूमिकाओं में पेश किया जाता था....जैसे इस जमीं पर वो प्रकृति की सबसे कमजोर प्राणी में से एक है....लेकिन जैसे-जैसे समाज में नारी का कद बढ़ता चला गया....और एक के बाद एक कई महिलाओं ने सफलता के शिखर पर अपने झंडे गाड़े....उसे सिर्फ पूरे समाज ही नहीं, बल्कि टेलिविजन ने भी स्वीकार कर लिया है..... ऐसे में अगर ऊपर वर्णित सीरीयलों के पात्र के बारे में बात करें तो एनडीटीवी पर प्रसारित होने वाला सीरीयल ज्योति एक ऐसी लड़की की कहानी है....जो विषम से विषम परिस्थितियों में पूरी हिम्मत के साथ डटकर उसका सामना करती है....औऱ आज के समाज की ऐसी संघर्षरत महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है....जो तमाम दुखों के बावजूद सारी परेशानियों को सहकर दूसरों की खुशी के लिए अपनी खुशी का त्याग कर देती हैं....जबकि सोनी पर प्रसारित होने वाले पालमपुर एक्सप्रेस की लड़की का किरदार....आज की उस लड़की को दर्शाता है....जिसमें कुछ करने की ललक है....उसमें अपने सपने को सच करने की हिम्मत है....वो भी औरों की तरह आगे बढना चाहती है....अपना एक अलग मुकाम हासिल करना चाहती हैं....इसी के साथ अगर सोनी के ही कार्यक्रम लेडिज स्पेशल की बात की जाए....तो वो तस्वीर है....आज की संघर्षरत नारी की....जो किसी भी सूरत में मर्दों से पीछे नहीं है....वो भी मर्दों की तरह की नौकरी करती है....और परिवार को चलाने में उसकी भी बराबर की हिस्सेदारी होती है....वो भी अपने फैसले लेने की कुव्वद रखती है....
इन सब सीरीयलों को देखकर लगता है कि समाज और टेलिविजन दोनों ने नारी के महत्व को पहचान लिया है....और वो समझ गया है कि....नारी अबला नहीं सबला है....टेलिविजन की इस पहल को एक सकारात्मक पहल कहा जा सकता है....उम्मीद है कि आगे आने वाले समय में भी टेलिविजन इस दिशा में कुछ और महत्वपूर् कदम उठायेगा....

अमित कुमार यादव

शुक्रवार, 22 मई 2009

पत्रकारिता का हथियार पैसा और जुगाड़

पत्रकारिता का हथियार पैसा और जुगाड़....हो सकता है कि कुछ लोगों को इस बात से कोई इत्तेफाक न हो....और उन्हें ये बात सही न लगती हो....लेकिन मेरे संगी-साथी जो....मेरी तरह खबरों की इस दुनिया में संघर्षरत हैं....उन्हें जरुर इसके कुछ मायने नजर आएंगे....आजकल खबरों की दुनिया में दो ही लोगों की चांदी है....जिसके पास या तो किसी रसूखदार व्यक्ति का जुगाड़ है....या फिर वो किसी ऐसे संस्थान से कोर्स कर रहा है....जिसने उसे नौकरी देने का वादा किया हो....मैं यहां पर अपने ही कुछ अनुभव बांटने की कोशिश कर रहा हूं....जिनके बारे में जानकर शायद आप भी मेरी बातों से कुछ इत्तेफाक रखें....मैंने 2005 में दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के कोर्स में दाखिल लिया....ऊपर वाले की नजर अच्छी थी....लिहाजा कोर्स के बीच में ही एक चैनल को पांच महीने अपनी निशुल्क सेवा देने के बाद हमें एक छोटी सी नौकरी मिल गई....2008 में कोर्स खत्म हुआ....हम चैनल में खबरों को समझने में ही लगे हुए थे....यानि नौकरी कर रहे थे....तब हमें भारतीय जनसंचार संस्थान में दाखिला मिल गया....तो हम नौकरी छोड़कर एक बार फिर पीजी डिप्लोमा करने वहां जा पहुंचे....हमारे साथ जो हमारे कुछ मित्र भी पास होकर निकले थे....उनमें से कुछ तो अब भी मेरी तरह अपनी रातें काली कर रहे हैं....यानि फ्री में ही चैनलों में नाइट शिफ्ट में लगे हुए हैं....कुछ लोगों ने ऐसे चैनलों के संस्थानों में दाखिला ले लिया.....जो एक मोटी रकम वसूलने के बाद....नौकरी देने का वादा करते हैं.....शायद आप जान ही गए होंगे कि मैं किनके बारे में बात कर रहा हूं....हम पूरे नौ महीने पत्रकार बनने की कोशिश करते रहे....अब ये तो हम भी नहीं जानते कि हम पत्रकार बन पाये या नहीं....लेकिन मेरे जिन मित्रों ने चैनलों के संस्थानों में दाखिला लिया था....वो जरुरु मीडिया क्लर्क बन गए....मैं यह नहीं कह रहा कि वो लोग पत्रकार नहीं हैं....बल्कि मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हम लोग खबरें लिखने में ही लगे रहे....जबकि वो लोग एक प्रोफेशनल की तरह बाइट, और पीटीसी की पत्रकारिता में हाथ आजमाते रहे....आज आलम यह है कि उनमें से कोई किसी चैनल में एंकर है....कोई रिपोर्टर बनने वाला है....और हम करीब एक साल नौकरी करने के बाद भी दोबारा इंटर्नशिप कर रहे हैं....आम भाषा में कहा जाए तो....बिना पैसे की मजदूरी....अच्छा कुछ लोग ऐसे भी थे....जिन्होने पूरे कोर्स के दौरान मस्ती की.... हालांकि मस्ती हमने भी की....लेकिन टोटल मस्ती नहीं की....हां तो मैं कह रहा था कि कुछ लोगों ने पूरे कोर्स के दौरान मस्ती की....और फिर जय जुगाड़ बाबा की....लग गए किसी को तेल लगाने में और बन बैठे आज की पत्रकारिता के पत्रकार...खैर ये है हमारी आधुनिक पत्रकारिता का चेहरा....पत्रकारिता का हथियार....पैसा और जुगाड़....

अमित कुमार यादव

गुरुवार, 21 मई 2009

बदलते मिजाज

मौसम को रंग बदलते देखा है, बादलों को करवट लेते देखा है, लेकिन आज पहली बार दोस्तों को बदलते देखा है....आईआईएमसी की यादों ने एक बार फिर मुझे जकड़ लिया और एक बार फिर मैं पहुंच गया अपने उन्हीं हसीन दिनों में....लेकिन इतनी मीठी-मीठी यादों के बीच एक कड़वे अनुभव से पाला पड़ गया....कल तक जो दोस्त थे....आज दुश्मन तो नहीं कह सकते....पर हां यह कह सकते हैं कि ऐसे दोस्त नहीं रहे....जैसे उन दिनों में हुआ करते थे.... साथ खाना, साथ पीना, किसी दोस्त के प्यार को पाने में उसकी मदद करना.... माफ कीजिएगा एक राज की बात है लेकिन सच है इसलिए मुझे लिखते हुए कोई संकोच नहीं है....कभी-कभी तो पूरी रात किसी एक लड़की के बारे में बातें करते करते गुजर जाती थी और तो और कई-कई दिनों तक एक-दूसरे के कमरों पर ही वक्त गुजरता था....लेकिन जैसे ही संस्थान के दरवाजे से बाहर निकले....सारा मंजर ही कुछ और है....न अब वो दोस्त है जो परेशानी में हौसला देता था....न वो थाली है जिसमें साथ बैठकर हम लोग खाना खाया करते थे....लेकिन इन सब के बीच पीड़ा तब होती है....जब पता चलता है कि कल तक जो दोस्त तारीफ किया करता था....आज पता चलता है कि पीछे से बुराई कर रहा है....और एक दूसरे के बारे में ऐसी बातें की जा रही हैं....जिन पर विश्वास नहीं होता....कि वो ऐसा कर सकता है....जिस पर इतना भरोसा था....खैर ये सिर्फ मेरी बात नहीं है....ये उन सब दोस्तों की बात है....जो कल तक साथ थे....औऱ आज इस भीड़भाड़ में इधर-उधर खो गए हैं....बस अपनी बात बशीर बद्र के इस शेर के साथ खत्म करता हूं कि.....”उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए”....
अमित कुमार यादव

बुधवार, 20 मई 2009

बहकी पत्रकारिता की डगर

पत्रकारिता को लोकतंत्र को चौथा स्तम्भ कहा जाता है। इसका अर्थ है कि यदि यह स्तम्भ हिला तो लोकतंत्र को नुकसान । लेकिन जहाँ तक मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई की है, हमें बताया गया था कि पत्रकार को किसी भी दिशा में बिना झुके अपना सिर उठाए रखना चाहिए। लेकिन १५ वीं लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद मीडिया में जिस तरह की पत्रकारिता की गई और उनमें जैसी खबरें दीं गईं, उन्हें देखकर और पढ़कर मन से सिर्फ़ तीन शब्द निकले। हाय री पत्रकारिता!

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में तो मैं ज्यादा नहीं कहूँगा, लेकिन प्रिंट मीडिया की ख़बरों को पढ़कर मुझे लगा कि शायद मेरी पत्रकारिता की पढ़ाई व्यर्थ चली गई। इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोकसभा चुनाव के बाद किसी ना किसी पार्टी की सरकार बननी ही थी। लेकिन चुनाव के परिणाम के बाद पत्रकारिता किसी एक पार्टी की तरफ़ बह जाएगी ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि मैं किसी ख़ास पार्टी से ताल्लुख रखता हूँ। हर मतदाता की तरह मैं भी अपने मत का प्रयोग करता हूँ, लेकिन जब पत्रकारिता की बात होती है तो मैं सभी राजनीतिक पार्टियों को ताक पर रखता हूँ।

इस बार लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद प्रिंट मीडिया कांग्रेस की तरफ़ झुकती नजर आ रही है । और ऐसा लग रहा है कि मानों पत्रकारिता अब कांग्रेस की कलम से चलेगी। मैं यहाँ पर स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं कांग्रेस का विरोधी नहीं हूँ। बात यहाँ पर पत्रकारिता की हो रही है। नई दिल्ली से ही प्रकाशित होने वाले एक अखबार ने कांग्रेस के एक नेता के नाम आगे अब 'श्री' लगना शुरू कर दिया है। इस पर जब आज सुबह इस अख़बार को पढ़ते हुए मेरी नज़र पड़ी तो मैं अचंभित हो गया। मैं इस अख़बार को पिछले आठ महीने से पढ़ रहा हूँ और यह अख़बार उसी दौरान दिल्ली से प्रकाशित होना शुरु हुआ था। इससे पहले कभी भी इस अख़बार ने 'श्री' शब्द का प्रयोग नहीं किया था। लेकिन लगता है कि इस प्रसिद्ध अख़बार ने भी पत्रकारिता की सीमा को लाँघ दिया है।

मैं आपको ऐसे अनेक अख़बारों का उदाहरण दे सकता हूँ जिसमें आने वाली नई सरकार के गुण गाने शुरू कर दिए हैं। इसमें कोई दोराय नहीं है कि इस बार कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया है, लेकिन यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। यदि कुछ पहली बार हुआ है तो वह है पत्रकारिता में बदलाव। एक ऐसा बदलाव जिसे देखकर लगता है कि अब पत्रकारिता की परिभाषा बदलने का समय आ गया है। अब पत्रकारिता की ऐसी परिभाषा का इज़ाद की जाए जिसमें चापलूसी, घूसखोरी आदि शब्द शामिल हों। हो सकता है कि किसी को मेरी ये बातें बुरी लग रहीं हों, तो मैं उसके लिए माफ़ी चाहता हूँ। लेकिन हम सत्य को छिपा नहीं सकते। और यह ही सत्य है। एक निष्पक्ष पत्रकारिता इस बार चुनाव के दौरान तो देखने को मिली, लेकिन चुनाव के परिणामों के बाद किसी एक पक्ष में पत्रकारिता का झुकना मुझे आहत कर रहा है।

राजेश भारती

शुक्रवार, 8 मई 2009

इंटर्नशिप थी या फ्रॉडशिप

3 मई 2009........ कल बहुत दिनों बाद उगते और ढलते सूरज को देखा। अरबों लोगों को रोज एक नया संदेश देता ये उगता-ढलता सूरज मेरी जिंदगी से कुछ वक्त के लिए गायब हो गया था। अरें नहीं नहीं यारों..... मैं किसी जेल में नहीं, दरअसल मैं एक टीवी चैनल में अपनी एक महीने की इंटर्नशिप कर रहा था। इंटर्नशिप में मेरा लक्ष्य था सिखना.. जिसके लिए मुझे ईवनिंग शिफ्ट दी गई, वक्त था दोपहर 3 बजे से रात 12 बजे तक। वो बात और है कि इस दौरान मेरी आंखें कुछ सिखने के लिए सिस्टम और कुर्सी को दूरबीन लगा कर तलाशती रहती थी!

2 महीने की इंटर्नशिप, पेड इंटर्नशिप, पॉलिटिकल डेक्स, अच्छा काम किया तो 2 महीने बाद जॉब का लड्डू! ये कहकर चैनल ने हमें बुलाया। ये सब बताकर संस्थान ने हमें भेजा। लेकिन....... न तो 2 महीने की इंटर्नशिप मिली। न तो वो पेड थी। न तो वहां कोई पॉलिटिकल डेक्स था।न अच्छा काम करने पर जॉब मिली। (मैं अच्छा काम कर रहा था, इसका ई-मेल न्यूज रूम से एचआर में किया गया था।)1 महीने बाद बिना कुछ दिए उन्होंने कह दिया जाओ।क्यों का उत्तर दूंगा तो वो एक खुलासे से कम नहीं होगा। और ये खुलासा इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि कलम की स्याही पैसों में आती है जिसे कमाने के लिए बहुत सी चीजों के साथ समझौता करना पड़ता है।

बहरहाल! इन 30 दिनों की इंटर्नशिप के दूसरे ही दिन मुझे टोक दिया गया। कहा- ये तुम्हारें बालों को क्या हुआ। मैंने कहा सर उड़ गए। मुझे हिदायत दे दी गयी कि ये टेलीविजन है स्मार्ट बन कर रहा करो।नई शिफ्ट और शेड्यूल में मुझे ऐसी सीट पर झोंक दिया गया जहां से मेरे एक क्लिक पर स्क्रिन पर न्यूजं फ्लैश होती है। एक हफ्ते काम किया। फिर गलती हुई तो मुझे वहां से हटा दिया गया। भरे न्यूजरुम में ये कहा गया कि तुम्हें यहां बैठाया किसने? ये बात उस शख्स ने मुझे कही थी जिसने मुझे वहां बैठाया था और जिससे पूछकर और जिसे दिखाकर ही मैं न्यूज फ्लैश किया करता था। वो बात अलग है कि वो गलती मेरी नहीं किसी और की थी। बात दिल को चुभी, गुरुजनों को बताई, गुरुजी ने कहा- इस अपमान को भूलों मत, दिल के एक कोने में दबा लो...... सो दबा लिया।

अब तक यहां कि खराब तबीयत को मैं जान चुका था। पत्रकारिता के माहौल में पेन के लिए मारामारी मची रहती थी। मैं नया था। बड़ी विन्रमता के साथ दिए 4 पेन मैं खो चुका था। लिखने का काम वैसे ही नहीं देते थे। ऐसे हालातों में पत्रकार बनने की चाह रखने वाले एक इंटर्न के लिए निश्चित तौर पर ये अशुभ संकेत थे। टीवी पर चल रही थोड़ी गलतियां बताई तो आसपास घूम रहे अनुभवी लोग अपने को इनसिक्योर फील करने लगे।और हां एक बात और! ब्लंडर क्या होता है ये भी मैंन जाना। जिस गलती को सीईओ साहब देख ले, हो ब्लंडर है। बाकी तुम खुदकुशी को खुदखुशी लिखो, टाई की जगह ड्रा लिखो, बीपीएल परिवार की जगह बीजेपी परिवार लिखो, तुम्हारी मर्जी!

अक्सर बात होती है कि पत्रकारिता को मजबूरी में बेचा जा रहा है...... लेकिन यहां जब-जब प्राइम टाइम में गंभीर राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा के लिए ऐड गुरुओं को बतौर गेस्ट एडीटर बुलाया जाता था तो मुझे लगा पत्रकारिता को मजबूरी में नहीं जबरदस्ती बेचा जा रहा है। इवनिंग शिफ्ट में सबका एक ही लक्ष्य रहता था..... बस प्राइम टाइम शो अच्छा निकल जाए। एक दिन मैने प्राइम टाइम शो खत्म होने के बाद इराक में बम फटने, कई लोगों के मारे जाने, और उसके शॉट्स आने की खबर देने की हिमाकत कर दी तो मुझे ये सलाह दी गयी- '' मरने दो सालों को''। आस्ट्रेलिया में चूहों ने जब नर्सिंग होम में मरीज को कुतर कर मौत के करीब ला दिया, और मैंने जब ये खबर और इसके शॉट्स दिये तो उल्टा मुझसे ही एक बहुत गभीर प्रश्न पूछ लिया गया- ''चूहों के मरीज को कुतरते हुए असली शाट्स तो तुमने दिए ही नहीं?''

खैर मुझे वहां कलम की दहाड़ की जगह उसकी सुगबुगाहट जरूर महसूस हुई। इसका एहसास तो मुझे इंटर्नशिप के पहले ही दिन हो गया था जब मैंने सिक्योरिटी गार्ड को जमीन पर पैर ढोंक कर थम मारते हुए सीईओ साहब को सलाम मारते हुए देखा था। असल में वो तानाशाही को सलाम था।मुझे वो आईस्क्रीम वाले का बेबाकपन हमेशा याद आएगा जिसे अक्सर ये शिकायत रहती थी कि इस चैनल के लोग कब उसकी 15 और 20 रुपये वाली आइस्क्रीम को खरीदना शुरू करेंगे! मुझे वो ऑफिस बॉय का निराशावादी रवैया भी याद आएगा जिसने ये कहां था कि ''भैया, पहले तो कोई खाने पीने और स्टेशनरी की चीजों का हिसाब ही नहीं मांगता था लेकिन अब तो पानी की बोतल का भी हिसाब मांगते हैं''। मैं कामना करुंगा कि कम से कम इन लोगों की हसरतें तो पूरी हो!

बुधवार, 6 मई 2009

मजा तो तब आयेगा जब...



मिश्राजी के नाम से शायद ही कोई परिचित न हो। मिश्राजी वो हैं जो जमीन को आसमान और आसमान को जमीन पर उतार दें। मिश्राजी वो हैं जो हाथी को चूहा और चूहा को हाथी बना दें। मिश्राजी वो हैं जो बिहार को दिल्ली और दिल्ली को बिहार बना दें। एक मिश्राजी मेरे भी मित्र हैं तारीफ बहुत हो गयी अब सीधे मिश्राजी के मुख्य मुद्दे पर आता हूं।
मिश्राजी की ज़ुबान पर हमेशा एक ही जुमला रहता है – मज़ा तो तब आयेगा जब....
हमेशा की तरह मिश्राजी ज़ुमला भी बीचे में रोक देते थे और सब का ध्यान दूसरी तरफ ले जाते थे। एक दिन मैं मिश्राजी की इस चालाकी को पकड़ लिया और पूछा – मिश्राजी इ का आप हमेशा बोलते रहते हैं कि मज़ा तो तब आयेगा जब । आप बतवा को अधूरा काहे छोड़ देते हैं बोलना है तो पूरा बोलिये। मिश्राजी मुझे खा जाने वाली नज़रों से घूरे और हमेशा की तरह बोले – का बोले हम, हम बोले लायक हैं तू लोग ना बोलेगा। तब मिश्रा जी को अपनी जमात ( गंगा ढाबा में हम सभी की बैठकी ) से अलग ले जाकर मैं पूछा बताईये ना मिश्राजी उ बतवा जो आप हमेशा बोलते रहते हैं कि मज़ा तो तब आयेगा जब ...
उस दिन मिश्राजी ने पटना में घटी एक घटना से अवगत कराया। जो बहुत ही हास्यप्रद लगा लेकिन वास्तव में यह शब्द बहुत कुछ कह जाता है। मिश्राजी ने अपने शब्दों में जो बयान किया उसे यहां दुहराने की कोशिश कर रहा हूं। मिश्राजी से मेरा आग्रह है कि आप इसे अन्यथा ना लें।
एक दिन पटना के गोलघर के सामने से हम जा रहे थे। वहां का दिखता है, वहां दिखता है कि ए गो आदमी, ए गो आदमी ज़मीन में, ए गो चद्दर बिछा दिया है। और बोल - बोल के भीड़ जुटा रहा है। अरे भीड़ जुटेगा तबे ना उ अपना तमाशा दिखायेगा। भीड़े ना रहेगा तो तमशवा के देखेगा। उ अपना डब्बा ( ढोल ) पीट - पीट के पांचे मिनट में बहुते भीड़ जुटा लिया। और सब कौतुहल वश सामने बिछा चद्दरवा देखने लगा। हम भी पहुंच गये तमाशा देखने। उ आदमी बार - बार एके गो बतिया बोल रहा था कि मज़ा तो तब आयेगा जब... हम भी नहीं समझे कि इ भीड़ जुटा के का मज़ा दिखावे वाला है। फिर पंद्रह मिनट बाद देखते हैं कि जमीन में बिछल चद्दर उपर उठने लगा। चद्दर को उपर उठते देख सभी भौंचक हो गये। अब हम आपको बता दें कि पटना शहर में आसपास से बहुते लड़का पढ़े आता है। कुछ साइंस का, कुछ आर्टस् का, तो कुछ कामर्स का। अब मज़ा तो इ आया कि साइंस वाला लड़कवन सोचे लगा कि जरुर इ नीचे में ए गो पाईप फीट किया होगा जिससे हवा निकलता होगा और चदरिया को उपर उठा रहा है। लेकिन असल तो किसी को पता नहीं ना। अरे पता चल जायेगा तो मज़ा कैसे आयेगा और उ गरीब अपना पेट कैसे भरेगा।
उ जो बोलता था ना - मज़ा तो तब आयेगा जब... चदरा मदरा लेकर उड़ेगा।
मिश्राजी ने रहस्योद्धाटन किया कि मज़ा तो तब आयेगा जब चदरा मदरा ले कर उड़ेगा। इस बात का मतलब मैं नहीं समझ सका और मैं पूछता रहा लेकिन मिश्राजी इसका मतलब नहीं बताये। मिश्राजी कहते रहे - देखते जाओ मज़ा तो तब आयेगा जब...। यह बात मुझे अब समझ में आयी। मैं आपको बताना नहीं चाहता लेकिन आप इस बात को समझ जायेंगे, क्यों मिश्राजी यह बात कहते रहते थे, मिश्राजी क्यों चूहा को हाथी बना देते थे। पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद मिश्राजी ने एक अच्छा मुकाम हासिल किया। मिश्राजी का प्लेसमेंट बिज़नेस भास्कर में हो गया। कभी - कभी मैं मिश्राजी से गंगा ढाबा में मिलता हूं और उनकी बात को याद कर मुस्कुराता हूं।

रविवार, 3 मई 2009

लोकतंत्र के चौथे पाये का भगवान ही मालिक

अमित कुमार यादव

टीवी पत्रकारिता में काम करने के लिए सिर्फ सुंदर दिखना ही काबिलियत बनकर रह गया है। अभी हाल ही में दो तीन ऐसी घटनाएं हुई कि टीवी चैनल की दुनिया से घृणा सी होने लगी है। इन दिनों एक निजी चैनल में इंटर्नशिप कर रहा हूं। चैनल का नाम लेना उचित नहीं है। यहां एक दिन ऐसा वाकया पेश आया कि एक मोहतरमा जो चैनल में पिछले करीब एक दो सालों से काम कर रही हैं, उन्हें प्रणब मुखर्जी की बाइट कटाने के लिए बोला गया। प्रणब मुखर्जी यूपीए सरकार की उपलब्धियों के बारे में बात कर रहे थे। इन मोहतरमा पांच छ बार बाइट को सुना होगा। इसके बाद वीडियो एडिटर के कान में इन्होने होले से पूछा कि ये यूपीए कौन सी पार्टी है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अगर ऐसे लोग पत्रकारिता करने आएंगे तो लोकतंत्र के इस चौथे पाये का भगवान ही मालिक है। दूसरे वाकया मेरे एक मित्र के साथ हुआ। मेरे क्लास के चार लोगों को एक चैनल में इंटर्नशिप के लिए भेजा गया। चैनल में जाने के बाद चैनल ने जिस आधार पर छात्रों का चुनाव किया, जब आपको पता चलेगा तो आप शायद आधुनिक पत्रकारिता के इस चेहरे पर विश्वास न करें। जिस शख्स को इन लोगों में से कुछ को चुनना था उन्होने सभी लोगों के चेहरे देखें और जो उन्हें अच्छा लगा, उसी आधार पर उन्हें इंटर्नशिप पर रख लिया गया। अगर पत्रकारिता करने के लिए सुंदर होना सब कुछ रह गया है तो फिर मेरे जैसे सांवले और काले लोगों को तो अपना भविष्य देख ही लेना चाहिए।

मुरली की चाय

पुरानी जींस और गिटार, मुहल्ले की वो सड़क और मेरे यार, रेडियो पर ये गाना सुना तो फिर से मन लौट गया उन्हीं गलियों में जहां जिंदगी का एक हसीन लम्हा बिताया। आईआईएमसी के नौ महीने मेरे लिए हनीमून की तरह थे। हरियाली और पक्षियों के कलरव के बीच पत्थरों पर बैठकर मुरली की चाय की चुस्की लेना और दोस्तों के साथ गपशप लड़ाना एक कभी न भूलने वाला पल है। दस बजे की क्लास के लिए सुबह साढे नौ बजे उठकर जल्दी जल्दी भागना, इतना ही नहीं इससे पहले एक प्याली चाय पीना सब बहुत याद आता है।मुरली.....जितनी मीठी मुरली की तान, उतनी मीठी मुरली की चा। दस से पांच बजे तक की क्लास के बीच पांच-छः प्याली चाय गटकना आम बात थी। मुरली की दुकान हमारे लिए एक मंच थी- विचारों के लेन-देन का, बहस-मुहाबसे का। मुरली की दुकान पर जहां पूरे दिन का प्लान तय होता था, वहीं अगर वक्त मिलता तो लालू और सोनिया की बातें भी होती थी। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि कभी-कभार मूड खराब होता था तो , राजनीति पर भी बहस होती थी। मुरली की दुकान समाज को समझने का एक ठिकाना थी। मुझे याद आता है कि एक मजदूर मुरली की दुकान पर चाय पीने के लिए आता था। अगर मैं उसका एक रुपक पेश करुं तो जर्जर काया, कंधे पर पड़ा एक गमछा और एक धोती के अलावा शायद और उसके पास कुछ नहीं था। यह सब देखकर ह्रदय में एक पीड़ा होती थी कि, एसी के बंद कमरे में बैठकर बार-२ यह कहना कि देश के करीब ८० प्रतिशत लोग २० रुपए प्रतिदिन पर गुजारा करते हैं, सब व्यर्थ है बेकार है। खैर मैं भी कहां समाजवादियों की तरह बातें करने लगा, जो मंचों पर तो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन असल में उन्हें यह सब देखकर कोई फर्क नहीं पड़ता। कुल मिलाकर मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि आईआईएमसी के अहाते में मुरली की चाय की दुकान का एक अलग महत्व था। मुरली की चाय पीते-पीते ५-६ महीने मजे से बीते, लेकिन एक दिन अचानक पता चला कि मुरली को वहां से हटा दिया गया है। हमारे बीच से मुरली की दुकान का जाना सिर्फ यह नहीं था कि हमें अब उसकी चाय से वंचित होना पड़ेगा, बल्कि वहां होने वाली बहसें, विचारों का लेन-देन सब खत्म हो जायेगा। ५-६ महीने में हमारा मुरली के प्रति एक लगाव सा हो गया था, जिसे हम ऐसे तोड़ना नहीं चाहते थे। लिहाजा हमने सोचा कि इसके खिलाफ प्रशासन के पास जाएंगे। हमने ये बात अपने गुरुओं के सामने रखी, लेकिन वो भी किसी के आदेश तले दबे थे। हम लोग कुछ नहीं कर पाए। मुरली को वहां से हटा दिया गया। मुरली को हटाने के पीछे कारण दिया गया, छात्रों का मुरली की दुकान पर सिगरेट के छल्ले उड़ाना, जो दुकान हटने के बाद भी जारी रहा। क्योंकि आप किसी से उसकी रोटी छिन सकते हैं, लेकिन उसकी भूख खत्म नहीं कर सकते और एक सिगरेट पीने वाले को अगर सिगरेट पीनी होगी तो वो कहीं से भी लाकर पिएगा। मुरली को हटाने का असल कारण सिगरेट पीना नहीँ था, बल्कि मामला था मुरली की चाय की वजह से कैंटीन वाले की चाय में उबाल न आना। ज्यादातर छात्र मुरली की दुकान पर चाय पीते थे। कोई कैंटीन की वो बकवास चाय पीना पसंद नहीं करता था। बस सिगरेट का बहाना बनाकर मुरली पर नकेल कस दी गई। कुछ दिनों बाद एक सुबह मुरली को संस्थान के बगीचे में फावड़ा चलाते देखा, तो एक पीड़ा की अनुभूति हुई, लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। एक गरीब को कैसे न कैसे तो अपना पेट पालना ही था। मुरली वहां से चला गया लेकिन आज भी जब संस्थान जाता हूं तो मुरली की याद फिर से ताजा हो जाती है।